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,,वक़्त कभी अपने बराबर मुख़्तसर नहीं आता ; रोज़ खिड़की

,,वक़्त कभी अपने बराबर मुख़्तसर नहीं आता ;
रोज़ खिड़की पे परिंदा  बैठा नज़र नहीं आता !

तवील रातें , ये बड़े बड़े दिन, पहाड़ सी शामें ;
तुम्हारे जाने के बाद से कोई इधर नहीं आता !

हर रोज सोचते हैं कि अब भूल जाएंगे उनको ;
पर हमें नज़रअंदाज़ करने का  हुनर नहीं आता !

अपने कमरे में अब पसरकर रहती है ख़ामोशी ;
अब कोई बेवजह खिलखिलाने घर नहीं आता !

जुदाई के बाद क्या मर से  जाते हैं सपने सारे  ;
इसके आगे भी  क्या कोई रहगुज़र नहीं आता  !

©V. Aaraadhyaa
  #मुख़्तसर