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मंदिर ---03 कर्ता भाव के यथार्थ को जान पाना ही मूल

मंदिर ---03
कर्ता भाव के यथार्थ को
जान पाना ही मूल भाव है।
तभी आस्था के साथ अन्य
शक्ति को स्वीकार किया जा सकता है
जो स्वयं से अघिक शक्तिमान हो।
समय के साथ उसी श्रद्धा के कारण
आत्म साक्षात्कार होता है।
कर्ता स्पष्ट होता है।
कर्ता की प्रतिष्ठा के कारण
मन मन्दिर हो जाता है।
व्यक्ति को अपनी जीव रूप
यात्रा का आभास होने लग जाता है
कौनसा शरीर छोड़ा होगा
कैसे माता के गर्भ से गुजरता हुआ
इस देह में जी रहा है।
पहले कितनी माताओं की
देहों में से गुजर चुका होगा। Ramroop  ji मैं मंदिर मन को ही मानता हूं इसलिए निर्माण के लिए उठापटक करते ठेकेदारों से कोई वास्ता नही और न ही दलित शोषितों से कोई कुंठा ।मैंने तो सर्वाधिक उसी वर्ग को मंदिरों की चौखट नापते देखा है ।
बालाजी,कैलादेवी, खाटू जी ,या वृंदावन, कहीं पर भी कोई रोक नही हां गांव में वो लोग अपनी मर्जी से ही यह कुंठा पाल बैठे है कि कोई उनको पूजा नहीं करने देगा तो यह भृम है क्योंकि इसके लिए "शबरी भाव" अपनाना होगा तब सामान्य वर्ग ब्राह्मण तो क्या भगवान भी भेद नही कर पाएंगे ।🤓😁😁😁🌹🙏🙏💕☕😀खैर मंदिर के लिए मेरे भाव यही है -----बहुत बहुत स्वागत आभार आपका ।मुझे फिर से कुछ ढूंढने के मौका मिला 🤓🌹🙏🙏💕सप्रेम नमस्कार !
:
इस भाव के साथ ही देह के प्रति मोह छूटता जाता है। वह यात्रा का एक पड़ाव जान पड़ती है। तब सारे सम्बन्ध भी एकाएक ठहर जाते हैं। वे भी सहयात्री हैं और अपने-अपने पड़ाव पर खड़े हैं। उनमें भी कोई कर्ता नहीं है। जो कुछ भी वे मेरे साथ कर रहे हैं,वह उनके शरीर का प्रतिनिघि नहीं है। जीव के कर्मो के कारण ही सब चल रहा है। उसका कर्ता भाव ही उसका अहंकार है। उसका अज्ञान है। मुझे उसके किसी कर्म के प्रति प्रतिक्रिया नहीं दिखानी चाहिए।

 

जो ईश्वर मेरे मन-मन्दिर में बैठा है,वही तो उनके मनों में बैठा है। वह भी यात्री है। व्यक्ति का यह भाव मन के साथ-साथ सात करोड़ कोशिकाओं में भी व्याप्त हो जाता है। उन सबके भी मन हैं। उन सभी के आभा मंडल प्रकाशित होने लगते हैं। यही चेतना का जागरण है। तब उस मन्दिर में घण्टियां बजने लगती हैं। इस प्रेम रस से विष्णु प्राण हृदय स्थित ब्रह्मा प्राण का पोषण करने लगता है। इन्द्र प्राण कूटस्थ भाव को तैंतीसवें स्तोम अर्थात परमेष्ठी लोक तक ले जाता है। जहां से सृष्टि आरम्भ होती है। वही सृष्टि का मन भी है,और वही सृष्टि का मन्दिर भी है।
मंदिर ---03
कर्ता भाव के यथार्थ को
जान पाना ही मूल भाव है।
तभी आस्था के साथ अन्य
शक्ति को स्वीकार किया जा सकता है
जो स्वयं से अघिक शक्तिमान हो।
समय के साथ उसी श्रद्धा के कारण
आत्म साक्षात्कार होता है।
कर्ता स्पष्ट होता है।
कर्ता की प्रतिष्ठा के कारण
मन मन्दिर हो जाता है।
व्यक्ति को अपनी जीव रूप
यात्रा का आभास होने लग जाता है
कौनसा शरीर छोड़ा होगा
कैसे माता के गर्भ से गुजरता हुआ
इस देह में जी रहा है।
पहले कितनी माताओं की
देहों में से गुजर चुका होगा। Ramroop  ji मैं मंदिर मन को ही मानता हूं इसलिए निर्माण के लिए उठापटक करते ठेकेदारों से कोई वास्ता नही और न ही दलित शोषितों से कोई कुंठा ।मैंने तो सर्वाधिक उसी वर्ग को मंदिरों की चौखट नापते देखा है ।
बालाजी,कैलादेवी, खाटू जी ,या वृंदावन, कहीं पर भी कोई रोक नही हां गांव में वो लोग अपनी मर्जी से ही यह कुंठा पाल बैठे है कि कोई उनको पूजा नहीं करने देगा तो यह भृम है क्योंकि इसके लिए "शबरी भाव" अपनाना होगा तब सामान्य वर्ग ब्राह्मण तो क्या भगवान भी भेद नही कर पाएंगे ।🤓😁😁😁🌹🙏🙏💕☕😀खैर मंदिर के लिए मेरे भाव यही है -----बहुत बहुत स्वागत आभार आपका ।मुझे फिर से कुछ ढूंढने के मौका मिला 🤓🌹🙏🙏💕सप्रेम नमस्कार !
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इस भाव के साथ ही देह के प्रति मोह छूटता जाता है। वह यात्रा का एक पड़ाव जान पड़ती है। तब सारे सम्बन्ध भी एकाएक ठहर जाते हैं। वे भी सहयात्री हैं और अपने-अपने पड़ाव पर खड़े हैं। उनमें भी कोई कर्ता नहीं है। जो कुछ भी वे मेरे साथ कर रहे हैं,वह उनके शरीर का प्रतिनिघि नहीं है। जीव के कर्मो के कारण ही सब चल रहा है। उसका कर्ता भाव ही उसका अहंकार है। उसका अज्ञान है। मुझे उसके किसी कर्म के प्रति प्रतिक्रिया नहीं दिखानी चाहिए।

 

जो ईश्वर मेरे मन-मन्दिर में बैठा है,वही तो उनके मनों में बैठा है। वह भी यात्री है। व्यक्ति का यह भाव मन के साथ-साथ सात करोड़ कोशिकाओं में भी व्याप्त हो जाता है। उन सबके भी मन हैं। उन सभी के आभा मंडल प्रकाशित होने लगते हैं। यही चेतना का जागरण है। तब उस मन्दिर में घण्टियां बजने लगती हैं। इस प्रेम रस से विष्णु प्राण हृदय स्थित ब्रह्मा प्राण का पोषण करने लगता है। इन्द्र प्राण कूटस्थ भाव को तैंतीसवें स्तोम अर्थात परमेष्ठी लोक तक ले जाता है। जहां से सृष्टि आरम्भ होती है। वही सृष्टि का मन भी है,और वही सृष्टि का मन्दिर भी है।