|| श्री हरि: ||
74 - सङ्कल्प
'दादा, ये राक्षस बहुत बुरे होते हैं।' श्यामसुंदर ने अपने विशाल दृग बड़ी विचित्र भंगी से अग्रज की ओर उठाये।
'हम सब असुरों को मार देंगे।' दाऊ के भ्रूमण्डल भी कठोर हुए और वह अपने छोटे भाई के पास बैठ गया। कन्हाई इतना गंभीर बने, उसका यह नित्य प्रसन्न चंचल अनुज इस प्रकार सचिन्त दिखायी दे-दाऊ इसे किसी प्रकार सह नहीं सकता।
कल जब गोचारण से गोष्ठ में लोटे, बाबा की पेरों पर एक बिचारी बुढिया रो रही थी। झुकी कमर, कांपते अङ्ग, पके केश, झुर्री पड़ा शरीर-हाथ में लठिया टेककर वह बडी कठिनता से आयी थी और अब तो उससे उठा भी नहीं जाता था। वह रो-कलप रही थी। बिलख रही थी। बडी दूर से बाबा की शरण में आयी थी। राक्षसों ने अकारण उसकी झोपड़ी जला दी। उसके फलशाली वृक्ष काट दिये। वह निरपराध - वह दीना मुनियों को कूछ फल भेंट कर आया करती थी यही था उसका अपराध। उस अनाथ का आवास, उसकी जीविका। हाय। अब क्या करे वह? कंस के अनुचरों के विरुध्द कौन उस कङ्गालिनी की बात सुनेगा? #Books