चलो बहुत दूर निकल जायें चलते-चलते उम्र भी उकताने लगी अब तो ढलते-ढलते रात के बाद सहर होगी मालूम था उसको शमा यूं ही नहीं बुझी जलते-जलते नफरत की बर्फ इस साल गिरी जाड़ों में क्यों न पिघलेगी कभी वो गलते-गलते साथी मेरे कुछ आज जरा तेज तो चलो कई ख़्वाब जगे हैं पलकों में पलते-पलते. ©कमल कांत #ग़ज़ल #हिंदीकविता #अर्ज़_किया_है