बेवकूफ समझदारी यादों के झरोखों से एक धुंधला चेहरा नजर आता है, अपनी नम आँखो को छिपाकर एक चेहरा मुस्कुराता है, सजा दोनों भुगत रहे हैं आख़िर कैसा यह समझौता है, ग़लती किसकी थी यह समझ नहीं आता है, यादों के झरोखे में भी आंसुओं को तेरा मुस्कुराहट छिपाता है, तेरी यही अदा मुझे बहुत रूलाता है, मेरे दर्द को मेरा लफ्ज भी अब बयां नहीं कर पाता है, ग़लती किसकी थी यह समझ नहीं आता है ... अगर तुम्हें मुझसे बेइंतहा प्यार था, मुझे भी कहाँ तेरे प्यार की गुलामी से इनकार था, थोड़े मतलबी हो जाते दोनों फ़िर खुशनुमा अपना भी संसार था, जिंदगी के कठोर खाई के पार अपना जीवन भी गुलजा़र था... अपने दर्द को छिपा कर तुने अगर मेरा हौंसला बढ़ाया नहीं होता, दूसरों की खुशियों के लिये तुझे मैंने ठुकराया नहीं होता, अपनी बेवकूफ समझदारी का क्या ख़ूब सजा पाया है, तेरी नम आँखो ने कई-कई बार रूलाया है ...