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सभ्य समय के रंगमंच पर फूहड़ता की एक झलक पर, सौ सौ ब

सभ्य समय के रंगमंच पर फूहड़ता की एक झलक पर,
सौ सौ बार सलामी देते नदी पार के छुक्कन भैय्या।

नोच रहीं अश्लील अदाएं , संघर्षों की राई राई।
थोथी चितवन, मुस्कानों की फिर भी नहीं हुई भरपाई।
कंधे पर बंदूक लिए हैं, बचपन में जो रहे फिसड्डी।
उड़ा रहे हैं अहंकार में  , ठुमकों पर नोटों की गड्डी।
मादकता की खुली देह पर धुआँ उगलती सिगरेटों पर,
पनसउवा ईनामी देते नदी पार के छुक्कन भैय्या।
सभ्य-------------(1)

व्हिस्की,  वीयर , चिलम, तमंचे कुर्सी पर बैठे झल्लाएं।
करें हवाई फैर झूमकर बिन गाली कुछ कह ना पाएं।
नाच रही है मदहोशी में मुर्गे की दावत की हड्डी।
संसद और विधायक भी हैं खेल रहे जो यहाँ कबड्डी।
गिरवी, बंधक,भू - पर बैठी शोषित वंचित भीड़-भाड़ को,
मंत्री के अनुगामी देते नदी पार के छुक्कन भैय्या।
सभ्य----------------(2)

नवयुग का यह भावी भारत थिरक रहा है नग्न नृत्य पर।
घर में भूँजी भाँग नहीं है लेकिन दिखते महा धनिक धर।
आमदनी की फिकर नहीं है केवल रोज घुमाते अड्डी।
पैग लडा़ते वही यहाँ पर, अटती नहीं है जिनके चड्डी।
ठकुरैसी का ताज पहनकर पुरखों के सब बाग -बगीचे,
किश्तों पर नीलामी देते नदी पार के छुक्कन भैय्या।
सभ्य--------------(3)

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रचनाकार -
करन सिंह परिहार
ग्राम - पोस्ट - पिण्डारन
जिला - बाँदा (उत्तर प्रदेश)
सम्पर्क - 9321832601

©Karan
  #Kaarya