करलो कितनी भी चतुराई वक़्त भला क्या रुक पाएगा कौन नज़ाक़त समझ सकेगा कैसे वक़्त बदल जाएगा आदर्श बनो बनकर तो देखो श्री-राम सदां वन को जाएगा बेशक़ पढ़ लिख कर के नारी आज पड़ी हो सब पर भारी पोरूष की कुंठित सत्ता को यह सब रास कहाँ आएगा! फिर वचनों में हारा दशरथ अपने सिर को खुजलायेगा कैकई और मंथरा से मिल रामायण को दुहरायेगा बेपीर हो चुके एहसासों को समझ खो चुके जज़्बातों को कौन भला फ़िर समझायेगा हृदय सभी के पत्थर के हैं कौन इन्हें अब पिघलाएगा सीता के हिस्से में केवल देखो जंगल ही आएगा