जर्जर कश्ती सा जीवन और मंज़िल बड़ी दूर है, कैसे पार हो ये मझधार जब राह को ही गुरूर है ! जर्जर कश्ती सा जीवन और मंज़िल बड़ी दूर है, कैसे पार हो ये मझधार जब राह को ही गुरूर है ! कहते थे ज़माने को ये कि हमने पिया ज़हर है, हमारी ही निगाहों का यूँ तो छाया यहाँ क़हर है, कोई तो हमें बचा ले इस आने वाले तूफ़ान से, कि इस तमाशे का अंत अब होना तो ज़रूर है !