अज़ान-ए-फजर में याद आती हो हो तुम रोजे की तरह बड़ा सताती हो इफ्तारी की तरह ललचाती हो पास आती हो तो सेहरी बन जाती हो तुम्हारी मोहब्बत में तराबी पढ़ी है मैंने पढ़ी नहीं दो रकात भी तुमनें