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सिकन्दर रोता है।। क्यूँ आज समंदर रोता है, मुंह ढा

सिकन्दर रोता है।।

क्यूँ आज समंदर रोता है,
मुंह ढांक ये अंदर रोता है।
किस हार का डर है मन मे बसा,
जो आज सिकन्दर रोता है।

विजय पताका गाड़ धरा,
क्या मिला नहीं क्या छूट रहा।
क्या आस लगाए बैठा था,
पल पल भर्रा जो टूट रहा।

नीयति मोड़ वो आया था,
संतोष विजय का रहा नहीं।
मन हारे ही मन की हार रही,
किस्सा ये किसी ने कहा नहीं।

है काल-सर्प का दंश अमोघ,
विष चढ़ा जो फिर ये उतरता नहीं।
ये मूषक नहीं दीमक भी नहीं,
कतरा कतरा ये कुतरता नहीं।

है दम्भ अविलम्ब यौवन छूता,
बालक शैशव का बोध नहीं।
बस धन जीता नर जीता नहीं,
वैभव तो रहा आमोद नहीं।

हर एक सिकन्दर से कह दो,
कभी दया पराजित नही रही।
ये मनुज भाव मनुहार विधा,
अपयश से शापित नहीं रही।

काम क्रोध और तम-वृति,
मानव जीवन परिहार्य रही।
दया भाव श्रृंगरित आत्मा,
हर एक युग मे अनिवार्य रही।

नर हो जो नर का भाव पढ़े,
वो किस्सा ही अमर होता है।
किस हार का डर है मन मे बसा,
जो आज सिकन्दर रोता है।

©रजनीश "स्वछंद" सिकन्दर रोता है।।

क्यूँ आज समंदर रोता है,
मुंह ढांक ये अंदर रोता है।
किस हार का डर है मन मे बसा,
जो आज सिकन्दर रोता है।

विजय पताका गाड़ धरा,
सिकन्दर रोता है।।

क्यूँ आज समंदर रोता है,
मुंह ढांक ये अंदर रोता है।
किस हार का डर है मन मे बसा,
जो आज सिकन्दर रोता है।

विजय पताका गाड़ धरा,
क्या मिला नहीं क्या छूट रहा।
क्या आस लगाए बैठा था,
पल पल भर्रा जो टूट रहा।

नीयति मोड़ वो आया था,
संतोष विजय का रहा नहीं।
मन हारे ही मन की हार रही,
किस्सा ये किसी ने कहा नहीं।

है काल-सर्प का दंश अमोघ,
विष चढ़ा जो फिर ये उतरता नहीं।
ये मूषक नहीं दीमक भी नहीं,
कतरा कतरा ये कुतरता नहीं।

है दम्भ अविलम्ब यौवन छूता,
बालक शैशव का बोध नहीं।
बस धन जीता नर जीता नहीं,
वैभव तो रहा आमोद नहीं।

हर एक सिकन्दर से कह दो,
कभी दया पराजित नही रही।
ये मनुज भाव मनुहार विधा,
अपयश से शापित नहीं रही।

काम क्रोध और तम-वृति,
मानव जीवन परिहार्य रही।
दया भाव श्रृंगरित आत्मा,
हर एक युग मे अनिवार्य रही।

नर हो जो नर का भाव पढ़े,
वो किस्सा ही अमर होता है।
किस हार का डर है मन मे बसा,
जो आज सिकन्दर रोता है।

©रजनीश "स्वछंद" सिकन्दर रोता है।।

क्यूँ आज समंदर रोता है,
मुंह ढांक ये अंदर रोता है।
किस हार का डर है मन मे बसा,
जो आज सिकन्दर रोता है।

विजय पताका गाड़ धरा,