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रोज रात ढलती है। खामोशी के अंधेरों में, तन्हाई भी

रोज रात ढलती है।
खामोशी के अंधेरों में,
तन्हाई 
भी आज जा बैठी है,
मगरुर हो के!
रुसवा है , 
हम,
उस चांद से,
क्यों! आसमान से  देखता है?
जिसे हमारी आरजू ही नही,
सिर्फ 
इंतजार 
और
आसमान में निकलता चांद,
रोज रात होती है,
चांद निकलता है।
फिर रोशनी में,
दिनभर ,
सिर्फ 
इंतजार

©ADV.काव्या मझधार( DK) महाकाल उपासक
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