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जहाँ तेरे पैरों के कँवल गिरा करते थे हँसे तो दो

 जहाँ तेरे पैरों के कँवल गिरा करते थे 
हँसे तो दो गालों में भँवर पङा करते थे 
तेरी कमर के बल पे नदी मुङा करती थी 
हँसी तेरी सुन सुन के फसल पका करती थी
छोङ आये हम वो गलियाँ ..........

जिस राह पे हाथ छुड़ा कर तुम तन्हा चल निकली हो 
इस खौफ़ से शायद राह भटक जाओ ना 
कहीं हर मोड़ पर मैंने नज़्म खड़ी कर रखी है! 
थक जाओ अगर
और तुमको ज़रूरत पड़ जाए, 
इक नज़्म की ऊँगली थाम के वापस आ जाना!

gulzar

©Jasmine of December
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