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त्रिशंकु।। नियत और नियति के महासमर में, बन त्रिशं

त्रिशंकु।।

नियत और नियति के महासमर में,
बन त्रिशंकु डोल रहा।
निजकर्मों की हर एक आहट पर,
भविष्य द्वार हूँ खोल रहा।

जब उठना था बैठा रहा,
जब चलना था ठहर गया।
दम्भ काल्पनिक पाले था,
सच देखा तो सिहर गया।
कब सपनों का साथ रहा,
वृत्ताकार बस चलना था।
तिनके चुन चुन जो बुने थे,
ठेस लगी और बिखर गया।
कोई जुगत नहीं संयोग नहीं,
रहा अनुकूल ये योग नहीं।
चिंगारी बन जलता दर्द रहा,
वैद्य कहे है कोई रोग नहीं।
आंसू भी छलक अब सूखे हैं,
बिन पानी दरिया में डूबे हैं।
आकंठ रहा अहसास मुझे,
भँवर में तैर रहे किस बूते हैं।
चपल हुआ अब चपल भी नहीं,
सफल तो रहा है सफल भी नहीं।
आस के धागे बस रहे उलझते,
भविष्य नहीं कोई कल भी नहीं।
कब सार थी गर्भित इन शब्दों में,
बस बजता ढोल रहा।
नियत और नियति के महासमर में,
बन त्रिशंकु डोल रहा।

एक आस पुंज की ज्योति लिए,
तमद्वार उलाहना चलती रही।
दिन के उजियारे तपन बड़ी थी,
जीवन मे रात उतरती रही।
सूरज का उगना भी मेरे,
राहों को रौशन कब कर पाया।
वृक्ष लगाए ताड़ के बैठा,
कैसे मिले फिर कोई छाया।
बिन आयाम ही मैं बहुआयामी था,
तज सारे कर्म बना फलकामी था।
ना बुद्ध चन्द्रमा मंगल सूर्य,
फ़नकाढे शनि ही ग्रहों का स्वामी था।
आस्तिक बनूँ या बनूँ नास्तिक,
दे दस्तक खुद को बोल रहा।
नियत और नियति के महासमर में,
बन त्रिशंकु डोल रहा।

©रजनीश "स्वछंद" त्रिशंकु।।

नियत और नियति के महासमर में,
बन त्रिशंकु डोल रहा।
निजकर्मों की हर एक आहट पर,
भविष्य द्वार हूँ खोल रहा।

जब उठना था बैठा रहा,
त्रिशंकु।।

नियत और नियति के महासमर में,
बन त्रिशंकु डोल रहा।
निजकर्मों की हर एक आहट पर,
भविष्य द्वार हूँ खोल रहा।

जब उठना था बैठा रहा,
जब चलना था ठहर गया।
दम्भ काल्पनिक पाले था,
सच देखा तो सिहर गया।
कब सपनों का साथ रहा,
वृत्ताकार बस चलना था।
तिनके चुन चुन जो बुने थे,
ठेस लगी और बिखर गया।
कोई जुगत नहीं संयोग नहीं,
रहा अनुकूल ये योग नहीं।
चिंगारी बन जलता दर्द रहा,
वैद्य कहे है कोई रोग नहीं।
आंसू भी छलक अब सूखे हैं,
बिन पानी दरिया में डूबे हैं।
आकंठ रहा अहसास मुझे,
भँवर में तैर रहे किस बूते हैं।
चपल हुआ अब चपल भी नहीं,
सफल तो रहा है सफल भी नहीं।
आस के धागे बस रहे उलझते,
भविष्य नहीं कोई कल भी नहीं।
कब सार थी गर्भित इन शब्दों में,
बस बजता ढोल रहा।
नियत और नियति के महासमर में,
बन त्रिशंकु डोल रहा।

एक आस पुंज की ज्योति लिए,
तमद्वार उलाहना चलती रही।
दिन के उजियारे तपन बड़ी थी,
जीवन मे रात उतरती रही।
सूरज का उगना भी मेरे,
राहों को रौशन कब कर पाया।
वृक्ष लगाए ताड़ के बैठा,
कैसे मिले फिर कोई छाया।
बिन आयाम ही मैं बहुआयामी था,
तज सारे कर्म बना फलकामी था।
ना बुद्ध चन्द्रमा मंगल सूर्य,
फ़नकाढे शनि ही ग्रहों का स्वामी था।
आस्तिक बनूँ या बनूँ नास्तिक,
दे दस्तक खुद को बोल रहा।
नियत और नियति के महासमर में,
बन त्रिशंकु डोल रहा।

©रजनीश "स्वछंद" त्रिशंकु।।

नियत और नियति के महासमर में,
बन त्रिशंकु डोल रहा।
निजकर्मों की हर एक आहट पर,
भविष्य द्वार हूँ खोल रहा।

जब उठना था बैठा रहा,