औरत के ख्व़ाब किसने देखे हैं? तुमने? मेरी आदमी की नज़रों से भी नहीं ? दुपहिया वाहनों पर दुपट्टा चेहरे पर बांधे तुमसे भागती जिंदगी को झूठ मूठ का नाटक करते देखा होगा वो मांगती हैं जो तुम्हारे पास हक़ है मेरे पास है सदियों से कुछ सही करने पर थप्पड़ खाने का ख़्वाब कैसे देख सकते हो तुम औरतों ने भी नहीं देखा था तुम जब भी बहती नदी को रोकते हो, पेड़ों को मारते हो औरतों के ख़्वाब फिर तैर नहीं पाते तुमसे दूर नहीं जा पाते उनके पेड़ों से लगे झूले टूट जाते हैं, फिर कैसे छलांग लगा पाएंगी उम्मीदें... औरतों के दीये जब बुझने लगते हैं आँखें बंद उनके ख्व़ाब तभी सफल हो पाते हैं तुम्हारी घूरती आँखें उन्हें अँधा कर दें आज़ादी के ख्यालात ख़्वाब बन गए हैं आज उसके मन में कुछ न हो क्या तुम सह पाओगे उसका एकांत में बैठना... कुछ न करना कल तुम्हारे पैर नहीं धोएगी घर की दीवारों से ज्यादा गर आसमां उसकी छत हो तुम्हारी हद को लांघना बर्दास्त नहीं होगा मैंने देखा है खिडकियों पर बैठे उदास ख़्वाब चाय की प्याली लाते दुःख की बाल्टी में पानी भरते ख़्वाब कंधो पर समाज की लाठी भांजते तुम खूब चले पर घर में जबान फिसल जाती है हाथ उठ जाते हैं पूछ कर देखो कभी उनसे ऊँचाई गहराई का ऐसा समन्वय तुम समझ नहीं पाओगे... तुमपे क्या गुज़री है अबतक, तुम हिज़ाब, ताले और नक़ाब देखो, कभी समय मिले तो उनकी आँखों से उनके ख़्वाब देखो... #Hindi #poem #kavita #Aurat #khwab #ped #Feminism #Female