मैंने मासूमों को सिसकते नंगे पैर खुले बदन, कूड़ो कचरों से कागज को चुनते देखा है, हर महोत्सव में कातर निगाहों से, पेट पर हाथ मलते बच्चों पर आँखें तरेरते देखा है। फेंके गए जूठन पर क्षुधा मिटाने भूखे पेट बच्चों को, मैंने श्वान के संग लड़ते देखा है, ख़ामोश बचपन को लोगों के ज़िंदा शहर में मैंने, बचपन को तिल-तिल मरते देखा है। समय सीमा : 21.01.2021 9:00 pm पंक्ति सीमा : 4 काव्य-ॲंजुरी में आपका स्वागत है। आइए, मिलकर कुछ नया लिखते हैं,