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मेरा खुद से खुद का सफ़र कैसे तय होता है, रब जाने

मेरा खुद से खुद का सफ़र  कैसे तय होता है, 
रब जानें ,कुछ सोचता हूँ, कुछ हो जाता है, कब 
जानें,कोशिस की पा जाऊँ सारी खुशियों को,
हकीकत की ये एक अजूबा ख़्वाब सा लगता  है,

 इन्ही उलझनों से लिपटा ज़िंदगी का सारा हिसाब
 सा लगता है, सफ़र अब भी खुद में चल रहा 
होता है, कैसे तय होगा रब जानें,

सोचता हूँ ,बहुत  की उलझनों से पार हो जाऊँ
 ज़िंदगी के अनचाहे अंधेरो  से पार हो जाऊ पर
 एक उलझन के बाद ,फ़िर एक नई उलझन ज़िंदगी
 के उजालों को छीन लेती है,और हर जन्मी नई 
आरजू ज़िंदगी के सवेरों को छीन लेती है,

सफर खुद में अब भी चल रहा होता है, क्या 
आरज़ू भी कभी, वक़्त से छोटा होता है
सवाल छोड़ कर दिल चला जाता है, पर मस्तिष्क
को ज़िंदगी के चंद लम्हों का हिसाब कहाँ आता है

मेरा खुद से खुद का  सफर.....

©पथिक
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