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महावीर ने कहा कि जीव भारी होता है प्रणतिपात से, हि

महावीर ने कहा कि
जीव भारी होता है प्रणतिपात से,
हिंसा करने से।
जीव भारी होता है हिंसा की स्मृति से।
हिंसा की स्मृति ही वास्तविक हिंसा है।
क्रियमाण हिंसा उतनी बड़ी नहीं है।
हिंसा के संस्कार की स्मृति बड़ी हिंसा है।
वही हमें भारी बनाती है।
हमारी हिंसा उस स्मृति को और भारी बना देती है।
यदि मन में हिंसा का संस्कार न हो
और हिंसा का संस्कार स्मृति रूप में जाग्रत न हो तो
वर्तमान की हिंसा संभव ही नहीं है।
जो भी वर्तमान में हिंसा कर रहा है,
उसके मन में हिंसा का संस्कार है।
उस हिंसा के संस्कार की स्मृति जाग्रत हो रही है।
अत: हिंसा का मूल वर्तमान घटना से ज्यादा हिंसा की स्मृति है।
घटना तो परिणाम है। #महावीर_जयंती की सभी देश वासियों को शुभकामनाएं। #21_दिन_का_लॉक_डाउन के साथ आज हम सब corona से जूझ रहे है।एक उम्मीद है कि एक दिन इसे ख़त्म कर देंगे। चलिए थोड़ी ज्ञान की बात कर लेते है।👉 #पाठकपुराण  👇
:
जैन धर्म मूल में त्याग और तपस्या के मार्ग पर चलकर जीने का मार्ग है।
शरीर को साधन मानकर आत्मकल्याण इसकी प्राथमिकता है।
हर वर्ष भाद्रपद माह में हजारों जैन मासखमण (एक माह के निर्जल उपवास) करते हैं।
वेद भी शरीर को साधन मात्र ही मानता है।
कालिदास ने “कुमारसंभव” में लिखा है-“शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।”
पुरूषार्थ का लक्ष्य भी मोक्ष प्राप्ति (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) ही है।
महावीर ने कहा कि
जीव भारी होता है प्रणतिपात से,
हिंसा करने से।
जीव भारी होता है हिंसा की स्मृति से।
हिंसा की स्मृति ही वास्तविक हिंसा है।
क्रियमाण हिंसा उतनी बड़ी नहीं है।
हिंसा के संस्कार की स्मृति बड़ी हिंसा है।
वही हमें भारी बनाती है।
हमारी हिंसा उस स्मृति को और भारी बना देती है।
यदि मन में हिंसा का संस्कार न हो
और हिंसा का संस्कार स्मृति रूप में जाग्रत न हो तो
वर्तमान की हिंसा संभव ही नहीं है।
जो भी वर्तमान में हिंसा कर रहा है,
उसके मन में हिंसा का संस्कार है।
उस हिंसा के संस्कार की स्मृति जाग्रत हो रही है।
अत: हिंसा का मूल वर्तमान घटना से ज्यादा हिंसा की स्मृति है।
घटना तो परिणाम है। #महावीर_जयंती की सभी देश वासियों को शुभकामनाएं। #21_दिन_का_लॉक_डाउन के साथ आज हम सब corona से जूझ रहे है।एक उम्मीद है कि एक दिन इसे ख़त्म कर देंगे। चलिए थोड़ी ज्ञान की बात कर लेते है।👉 #पाठकपुराण  👇
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जैन धर्म मूल में त्याग और तपस्या के मार्ग पर चलकर जीने का मार्ग है।
शरीर को साधन मानकर आत्मकल्याण इसकी प्राथमिकता है।
हर वर्ष भाद्रपद माह में हजारों जैन मासखमण (एक माह के निर्जल उपवास) करते हैं।
वेद भी शरीर को साधन मात्र ही मानता है।
कालिदास ने “कुमारसंभव” में लिखा है-“शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।”
पुरूषार्थ का लक्ष्य भी मोक्ष प्राप्ति (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) ही है।