निभाते चले गए हम ज़िम्मेदारी, पर इससे क्या फर्क पड़ता है, यहां सभी खुद के लिए जीते है, कितनों को दूसरों से वास्ता नही, और कुछ गैरों के लिए जीते है, ख़ुदा नें सिर्फ इंसान बनाया था, मगर जमीं पर इंसानियत नही है, गरीब होना अभिशाप हो गया है, उन्हें कोई पूछनेवाला तक नही है, मर गया शरीर ऐसे ही पड़ा है, आँचल खिंचता अबोध खड़ा है, अनभिज्ञ है मृत्यु से वो बालक, उसे तो भूख की ज्वाला याद है, मालूम है उसे की ये मेरी माँ है, सोई है अभी पर उठ जाएगी, मेरी भूख को शमन करेगी, मगर उस शैशव को मालूम नही, इस कलुषित संसार को छोड़ चुकी है, अब नही सहने होंगे ताने किसी की, नही खाने होंगे ठोकरे दर-ब-दर, मगर उसकी मृत देह पूछती सवाल कई, मानवता से मांगती अधिकार कई, मानव जब दूसरे मानव के काम न आया, फिर वो मानव कहलाने के लायक नही, असहनीय पीड़ा में है मानवता आज, मगर उनके साहूकारों को फुरसत नही, दूसरों के दुःख पर कोई हर्षित होता, अपनें पर जब आये तो दुःखित होता, यही इंसानों की नियति बन गई है, दुःखित हूँ अब इंसानियत न रहा... - © रविन्द्र श्रीवास्तव "दीपक" #walkingalone #me #Hu #Hum #Ma #Di #died #rail #ravindrashrivastavaquote