उम्र की संख्या जैसे-जैसे बढ़ती हैं जिम्मेदारियों का भार भी बढ़ता चला जाता हैं, और दांत गिरते-गिरते जब जिम्मेदारियों का बोझ भी गिर जाता हैं तब तक जिंदगी कि उम्र हो जाती हैं, क्योंकि आज की स्वार्थी दुनिया कहती हैं कि जो वर्तमान में जिम्मेदारी नहीं ले सकता उसे जीने का हक क्या?! ©Priya Sahu #बुढ़ापा#उम्र#स्वार्थी_संतान#भार#जिम्मेदारी