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मेरी डायरी के पन्नों में से एक छोटा सा, पर अहम हि

मेरी डायरी के पन्नों में से एक छोटा सा, 
पर अहम हिस्सा। सन् २०१३, जून का महीना। 

कभी गरजती शाम और थरथराती रात, 
तो कभी भीनी सुगंध में लथपथ मिट्टी को 
छूते रिमझिम करते बादालों में से झाँकता सूरज; 
संदली सुबह का आग़ाज़। प्रेम में डूबे सूरज 
का बादालों से चुपके से मिलना, और इसी प्रेम 
में पनपा प्रेम का प्रतीक, इंद्रधनुष!

(शेष अनुशीर्षक में पढ़ें) मेरी डायरी के पन्नों में से एक छोटा सा, पर अहम हिस्सा। सन् २०१३, जून का महीना। 

कभी गरजती शाम और थरथराती रात, तो कभी भीनी सुगंध में लथपथ मिट्टी को छूते रिमझिम करते बादालों में से झाँकता सूरज; संदली सुबह का आग़ाज़। प्रेम में डूबे सूरज का बादालों से चुपके से मिलना, और इसी प्रेम में पनपा प्रेम का प्रतीक, इंद्रधनुष! 

तुम इसी इंद्रधनुष से थे मेरे लिए। काले बादालों जैसी क़िस्मत और झाँकतें सूरज जैसी ज़िंदगी की छोटी छोटी खुशियों के बीच, इस जीवन को संवारने वाला, मेरा फ़रिश्ता! 

कॉलेज का आखिरी साल शुरू होने वाला था। २० जून,२०१३, गर्मियों की छुट्टियों को अलविदा कहने का दिन आ गया। भोर होते ही, फ़ोन के अलार्म ने ज़ोरों से चिल्लाकर, सपनों को चीरकर, कानों के पर्दे फाड़कर, मुझे फिरसे हक़ीक़त की कठोरता में धकेल दिया। महीने भर के आराम के बाद, भोर में उठना कितना त्रासदायक होता है!
मेरी डायरी के पन्नों में से एक छोटा सा, 
पर अहम हिस्सा। सन् २०१३, जून का महीना। 

कभी गरजती शाम और थरथराती रात, 
तो कभी भीनी सुगंध में लथपथ मिट्टी को 
छूते रिमझिम करते बादालों में से झाँकता सूरज; 
संदली सुबह का आग़ाज़। प्रेम में डूबे सूरज 
का बादालों से चुपके से मिलना, और इसी प्रेम 
में पनपा प्रेम का प्रतीक, इंद्रधनुष!

(शेष अनुशीर्षक में पढ़ें) मेरी डायरी के पन्नों में से एक छोटा सा, पर अहम हिस्सा। सन् २०१३, जून का महीना। 

कभी गरजती शाम और थरथराती रात, तो कभी भीनी सुगंध में लथपथ मिट्टी को छूते रिमझिम करते बादालों में से झाँकता सूरज; संदली सुबह का आग़ाज़। प्रेम में डूबे सूरज का बादालों से चुपके से मिलना, और इसी प्रेम में पनपा प्रेम का प्रतीक, इंद्रधनुष! 

तुम इसी इंद्रधनुष से थे मेरे लिए। काले बादालों जैसी क़िस्मत और झाँकतें सूरज जैसी ज़िंदगी की छोटी छोटी खुशियों के बीच, इस जीवन को संवारने वाला, मेरा फ़रिश्ता! 

कॉलेज का आखिरी साल शुरू होने वाला था। २० जून,२०१३, गर्मियों की छुट्टियों को अलविदा कहने का दिन आ गया। भोर होते ही, फ़ोन के अलार्म ने ज़ोरों से चिल्लाकर, सपनों को चीरकर, कानों के पर्दे फाड़कर, मुझे फिरसे हक़ीक़त की कठोरता में धकेल दिया। महीने भर के आराम के बाद, भोर में उठना कितना त्रासदायक होता है!
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