घर से निकलते हैं तो नहीं होता पता किधर जाते हैं, हर तरफ होती हैं तेज हवाएं बस बिखर जाते हैं कितना आसान होता है लफ्जों पे भरोसा करना कोई बोल दे कहीं कुछ, हम उधर जाते हैं। नया शहर है अंजान डगर हैं, रातें अधजगी हैं, थके थके दिन हैं सुबह निकलते हैं नई उम्मीदों के साथ,रात होते -होते थककर घर आते हैं। लाखों की भीड़ में कहीं खो दिया है खुद को, मिलने किसी रोज खुद से चलो घर जाते हैं। यूं तो कितना कुछ होता है जिंदगी में हर रोज, हादसे मगर पुराने सोचकर हम मर जातें हैं। शाम होते होते खुद में सिमट जाते हैं अब हम, होती है सुबह फिर से बिखर जाते हैं। ©Sanjiv Chauhan #बिखराव