|| श्री हरि: ||
3 - भरोसा भगवान का
'वह देखो!' याक की पीठ पर से ही जो कुछ दिखाई पड़ा उसने उत्फुल्ल कर दिया। अभी दिनके दो बजे थे। हम सब चले थे तीर्थपुरी से प्रात: सूर्योदय होते ही, किंतु गुरच्याँग में विश्राम-भोजन हो गया था और तिब्बतीय क्षेत्र में वैसे भी भूख कम ही लगती है। परन्तु जहाँ यात्री रात-दिन थका ही रहता हो, जहाँ वायु में प्राणवायु (आक्सिजन) की कमी के कारण दस गज चलने में ही दम फूलने लगता हो और अपना बिस्तर समेटने में पूरा पसीना आ जाता हो, वहाँ याक की पीठपर ही सही, सोलह मील की यात्रा करके कोई ऊब जाय, यह स्वाभाविक है। कई बार हम पूछ चुके थे 'खिंगलुंग' कितनी दूर है। अब दो बज चुके थे और चार-पाँच बजे तक हमें भोजनादि से निवृत्त हो जाना चाहिये। तंबू भी खडे़ करनेमें कुछ समय लगता है। सूर्यास्त से पहले ही अत्यन्त शीतल वायु चलने लगती है। इन सब चिन्ताओं के मध्य एक इतना सुन्दर दृश्य दिखायी पडे - सर्वथा अकल्पित, आप हमारी प्रसन्नता का अनुमान नहीं कर सकते।
'ओह! यह तो संगमरमर का फुहारा है।' मेरे बंगाली मित्र भूल गये कि वे अर्धपालित पशु याक पर बैठे हैं। याक तनिक सा स्पर्श हो जाने से चौंक कर कूदने-भागने लगता है। उस पर बैठने वाले को बराबर सावधान रहना पड़ता है। कुशल हुई - मेरे साथी का याक तनिक कूद कर ही फिर ठीक चलने लगा था। उसे साथ चलने वाले पीछे के याक ने सींग की ठोकर दी थी, मेरे साथी सामने देखने में लगे होने से असावधान थे; किंतु गिरे नही, बच गये।
'संगमरमर नहीं है, गंधक का झरना है। गंधक के पानी ने अपने आप इसे बनाया है।' हमारे साथ के दुभाषिये दिलीप सिंह ने हमें बताया। वह पैदल चल रहा था; किन्तु प्राय: मेरे याक के साथ रहता था। #Books