ग़ुलाम...! अजीब हालत हो रहे है हमारे भी तुझे खोंने के एहसास से मुख़ातिब हो रहे है। लगता है भटक जाएंगे तेरे बिन... इन रास्तो पर शायद तेरे बनाए हालातों के गुलाम हो रहे है। कहाँ जाता, किस से पता पूछता हुआ जब अकेला तेरी यादो का पेहर देखता भटक तो रहे थे, गुलामो की तरह तेरे दरपर, तेरी मोहब्बत पे जब हुजूम-ए-आशिकों का मेला देखा लगा नया नहीं,चाँद की रोशनी में तारो का टिमटिमाना। शायद हमनें फिर कोई फ़रेब देखा पर वो मंज़र-ए-क़यामत था मेरे लिए मुख़ातिब हो गया था तेरे आइन-ए-अश्क से पर दिल ने उम्मीदे लो क्यों बरक़रार रखी शायद मैं फिर तेरा ग़ुलाम हो रह था ज़ेहन में कई बार आया की तोड़ दू कनिज़-ए-जंजीर, पर अपनी आदत से मैं कहा बाज़ आया। तुझे देख-बात करने की आदत अब लात सी हो गई है मैं शायद फिर तेरी मीठी बातों का ग़ुलाम हो रहा था अजीब हालते उलझन हो रही है हमारे भी उसे देख नाज़िम फिर तेरे हम मुख़ातिब हो रहे हैं। ग़ुलाम...! अजीब हालत हो रहे है हमारे भी तुझे खोंने के एहसास से मुख़ातिब हो रहे है। लगता है भटक जाएंगे तेरे बिन... इन रास्तो पर शायद तेरे बनाए हालातों के गुलाम हो रहे है। कहाँ जाता, किस से पता पूछता