ये जो ज़िदगी है दो चार पहर हैरान सी करती है मुझे शाम-ओ-सहर। चंद खुशियोँ में है गुज़ारा होता बाँकि बचता है वो ग़म का सागर। ख़्वाहिशों का भटकना है यहाँ बेवज़ह सा ख़्वाब आँखों में ही मरा करते अक़्सर। मयूसियाँ ढूँढ लेती है हरेक घर का पता सुकूँ को कैसे नहीँ मिलता है यहाँ अपना दर। ये जो ज़िदगी है दो चार पहर हैरान सी करती है मुझे शाम-ओ-सहर। - क्रांति #ज़िन्दगी