ये शाम ख़्वाब सी, ख्याल तेरे हमनवाँ, धनक के रंग पहने खिल रहा ये आसमाँ। सभी फिराक में हैं अपनी वापसी को, जो गए भटक उनका कहाँ कोई ख़ैर-ख्वाँ। उसे आना ही नहीं, उम्मीद ला-हासिल, गुज़र चुका इसी राह से कारवाँ-दर-कारवाँ। इश्क़ खुश्बू है जो महके इस करीने से, पाक हो जाती हवा गुज़रे जो छूकर अर्ग़वाँ। शाम की दहलीज़ पर ज़र-फ़िशाँ यादें हैं, इक चाँद रोएगा चाँद देख, हर सूं आब-ए-रवाँ। “मदीहा” ग़ज़लों में लज़्ज़त तो होगी ही, कि उनमें ज़िक्र उसका आ ही जाता जहाँ-तहाँ। –अबोध_मन//“फरीदा” . ©अवरुद्ध मन ख़्वाब सी, ख्याल तेरे हमनवाँ, धनक के रंग पहने खिल रहा ये आसमाँ। सभी फिराक में है अपनी वापसी को, जो गए भटक उनका कहाँ कोई ख़ैर-ख्वाँ। उसे आना ही नहीं, उम्मीद ला-हासिल, गुज़र चुका इसी राह से कारवाँ-दर-कारवाँ।