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संजय श्रीवास्तव

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संजय श्रीवास्तव

कभी देखा है बारिश में
धूप निकलते
अजीब सा लगता है ना
एक साथ ही 
दो मौसम प्रकृति के गोद में
कितना खूबसूरत है ना
जिंदगी भी कमोवेश
मौसम जैसी है
बारिश धूप बसंत पतझड़
के तमाम रंगो में समायी
कभी रूलाती तो कभी हंसाती
फिर भी हमारी जरुरत है ना
कितनी खूबसूरत है ना
आसान सी या फिर मुश्किलों भरी
तमाम कोरे पन्ने भरती
टेढे़ मेढे़ पगडंडियों से गुजरती
हर किसी की चाहत है ना
कितनी खूबसूरत है ना
वो गवाह भी तो है
मिलन और जुदाई के बीच में
न जाने कितने आँसूओं की
जो अनायास ही टपके होंगे
और जो मंजिल की तलाश में
भटके होंगे
फिर भी कोई शिकवा नही 
कोई गिला नही
शायद मनमंदिर में
कोई मूरत है ना
कितना खूबसूरत है ना। कितना खूबसूरत है ना

कितना खूबसूरत है ना

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संजय श्रीवास्तव

जम्हूरियत में गद्दारों का चलन देखता रहा,
कुर्सी में उलझा अपना वतन देखता रहा।

झंडा लिये क्यूँ वो बैठा है उसको पता नही,
बस छीनते हुये वो अम्नो चमन देखता रहा।

अपनों की फिक्र करना भी गुनाह हो जहाँ,
ऐसे वतन फरोशों की जलन देखता रहा।

इंसानियत बिकती है जहां चंद सिक्कों पर,
जलती है कैसे दिल में अगन देखता रहा।

मैं खुश हूँ कि मेरा मुल्क है अब जागने लगा ,
संजय तो बस चौकीदार का फन देखता रहा। गज़ल

गज़ल

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संजय श्रीवास्तव

अलोकप्रिय असंवेदनशील निर्णय से बाहर आओ तुम
जनता की आकाँक्षाओं पर खरे होकर दिखाओ तुम

जनता साथ खडी़ है अगर हर राष्ट्रवाद के मुद्दे पर
निजीकरण के नाम पर बेरोजगारी नहीं बढा़ओ तुम

तुमको चुनकर लाये हैं हम चोट करो भ्रष्टाचारी पर
पर ईमानदार कर्मठ जो है उनका मान बढा़ओ तुम

शिक्षा रोजगार अनुसंधान पर काम अभी करना होगा
हर हाथ को काम मिले विकास की गंगा बहाओ तुम

जनसंख्या का बोझ बहुत है अपनी पावन धरती पर
राजनीति से उपर उठकर कोई उपाय निकालो तुम

धर्म और विज्ञान का झंडा फिर से लहराये भारत में 
तुमसे ही उम्मीद देश को उसे पूरा करके दिखाओ तुम

लूट लूट कर देश को अपने कंगाल बनाने वालो से
पाई पाई वसूल कर सोने की चिडि़या बनाओ तुम
संजय जनता की आवाज

जनता की आवाज

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संजय श्रीवास्तव

सिंदूरी शाम

सिंदूरी शाम

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संजय श्रीवास्तव

मुख्तसर सी जिंदगी कांटों भरी डगर है,
होता नही है आदमी आता जो नज़र है।

राहे वफा में साथ वो भी निभायेगा क्यूँ,
उस बेवफा के साथ जब पूरा ये शहर है।

साहिल की तलाश में भटका कहाँ कहाँ,
रोकी वहीं पर कश्ती जहाँ डूबने का डर है।

किसने पिलाया जाम और क्यूँ पिला दिया,
उसको पता नहीं क्या ये इश्क भी जहर है।

मुमकिन है मिल जाये उसके जैसा कोई,
ये जिंदगी भी संजय #चाहतों का सफर है। गज़ल

गज़ल #चाहतों

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संजय श्रीवास्तव

अधूरी मुहब्बत

वो एक आहट 
जो मैने महसूस किया था
तुम को भी तो हुआ होगा!
तप्त धरती पर गिरती है
जैसे बारिश की बूंदे
मन तेरा भी तो भीगा होगा!
तुम भी सोचती हो कुछ
जैसा मै सोचता हूँ!
या रोती हो वैसे ही ,
जैसे मै रोता हूँ।
हां मैने जिया है तुमको,
एक जिंदगी की तरह!
सांसो मे लिपटी हो जैसे,
बंदगी की तरह!
जरा जरा ही सही
तुम मुझमें समायी थी,
रातरानी की खुशबू की तरह!
सफर बाकी है अभी,
संग तुमको चलना होगा!
रोशनी के लिये,
शमां बनकर जलना होगा!
आना होगा पुरी करने
वो एक कहानी अधूरी सी
मिलन होगा हमारा
तभी होगी वो शाम सिंदूरी सी
संजय श्रीवास्तव सिंदूरी शाम

सिंदूरी शाम

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संजय श्रीवास्तव

शबे गम गुजर गया, दर्दे सहर बाकी है 
हर जाम पी गया, इश्के जहर बाकी है 

लूट कर बस्ती, चैन उसको नही आया
रह गया शायद ,गरीब का घर बाकी है 

उजड़ा जो चमन ,आँधियों की जद में 
शुक्र है खुदा का, बुढ़ा शजर बाकी है 

‍चाहने वाले उसको ,कम थे नही जहाँ में
पर जिसको वो चाहे ,तीरे नजर बाकी है 

दिल की बात संजय,  दिल मे ही रखना
चलते रहो सफर मे ,मंजिले नजर बाकी है 

संजय गज़ल

गज़ल

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संजय श्रीवास्तव

ग़ज़ल 

वो शायद मजबूर होगा 
दर्द मिला भरपूर होगा 

कौन परवाह उसका करे 
पास होकर भी दूर होगा 

सच वो कह देगा जरुर 
जब वो नशे में चूर होगा 

मत आना अब तुम कभी 
वरना इश्क बदस्तुर होगा 

तेरा साथ मिल गया उसे
अब तो वो मगरुर होगा 

मेरे हिस्से की धूप निकली
रोशनी संजय जरुर होगा 

संजय श्रीवास्तव गज़ल

गज़ल

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संजय श्रीवास्तव

ग़ज़ल 

वो शायद मजबूर होगा 
दर्द मिला भरपूर होगा 

कौन परवाह उसका करे 
पास होकर भी दूर होगा 

सच वो कह देगा जरुर 
जब वो नशे में चूर होगा 

मत आना अब तुम कभी 
वरना इश्क बदस्तुर होगा 

तेरा साथ मिल गया उसे
अब तो वो मगरुर होगा 

मेरे हिस्से की धूप निकली
रोशनी संजय जरुर होगा 

संजय श्रीवास्तव गज़ल

गज़ल

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संजय श्रीवास्तव

देखकर दुनिया के रंग ,खुद को बदलता रहा
दिल में उम्मीद का ,एक चिराग जलता रहा

हार कर भी जिंदगी स,े मायूस न होना कभी
जीत जायेगा अगर, जो रास्ते पर चलता रहा

गैर कोई है नही सब ,अपने चमन के फूल है
काँटों का साथ क्यूँ ,बागवां को खलता रहा

उसको पढा़ने में बिका, खेत खलिहान सब
माँ बाप की छाती पर,  मूंग वही दलता रहा

वो बाँटते है सभी को ,मजहब के नाम पर
एक यही झूठ संजय ,मुल्क में फैलता रहा गज़ल

गज़ल

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