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Vikram Agastya

All india medical students Association,New Delhi.

"मेरी डिबिया की रौशनी"/विक्रम अगस्त्य #बचपन " पुस कि रात और मेरी डिबिया की रौशनी" [ विक्रम अगस्त्य] बेहद ठंड होती हैं, पुस की रात..... वो दौर था उस वक्त का जब हमारे गांव में बिजली नहीं हुआ करता था। डिबिया के रौशनी में पढ़ा करते थे। यकीन मानिए दोस्तों वो दौर ही इतना मनमोहक था। शाम होते ही फिर वहीं छोटीसी प्यारी डिबिया के पास बैठ कर " हल्कू और सिरचन के कहानियां पढ़़ा करते थे। मेरी माँ हमेशा सब घरेलू काम निपटा कर बैठ जाती थी, मेरे पास , जब मैं पढ़ते पढ़ते सो जाता तब मेरी माँ मुझे नींद मैं ही अगसर खाना खिला देती थी। गोद में उठा कर बिस्तर पे सुला देती थी। फिर वो मेरी बुक्स को उस जगह रख देती थी। जहाँ उसे होना चाहिए था। मेरे पिता एक चिकित्सक थे, वो हमेशा घर देररात लौटा करते थे। लेकिन जैसे ही सबेरा होता, पिताजी कमरे में दाखिल होते ही, पुरें बदन को दबा देते थे। अंगड़ाइयां लेते हुए,मैं उठ बैठता था। फिर पिताजी अपने कंधों पर लेकर चापाकल तक छोड़ते थे। नित्यक्रिया संपन्न होने के बाद सभी भाई-बहन इकट्ठा हो कर सुबह का नाश्ता करते और एक-दूसरे का टांग खिचाई करते। उस वक्त मेरी नजर उस कोने में पड़े उस डिबिया पे जाता हैं, मानों ऐसा लग रहा था, वो हमारे साथ हँसी-मजाक, टिठोलीया कर रहा हो, तभी माँ ने गरमागरम आलू के पराटे सामने रख देती हैं। फिर भी में एकटक उस डिबिया को देखता चला गया। मानों ऐसा लगा वो मुझसे कुछ कहना चाह रही हो, तभी पिताजी आंगन में आते हैं, और कहते हैं, हमारे गांव में कल शाम तक में बिजली आ जाऐगा। इतना सुनते ही अचानक मेरी आंखें नम हो गया , मन विचलित होने लगा । मैं सरपट खेतों के तरफ दौड़ा। जहाँ कोई नहीं था, सिवाय मेरे, मैं जोर से चिखा और कलपित होकर रोने लगा। ना जाने उस निर्जीव वस्तु(डिबिया) का मुझपे इतना गहरा असर पड़ गया था। मेरे दिल को तारतार कर रहा था। जब स्कूल गया तो मेरे चहरे की उदासी को बिंदेश्वरी सर ने पहचान लिया। उन्होंने अपने पास बुलाया और सिर को बालों को ठीक करते हुए कहा , आज तुमनें कुछ खोया हुआ है ऐसा कुछ कि हो सकता मैं तुम्हें दे सकता हूँ। मैं दबे आवाज में कहा, सर संसार में क्या हर चीजों की मृत्यु होती हैं। बिंदेश्वरी सर ने जोर से ठहाका (पुरा क्लास रूम आश्चर्य से मौनविलीन हो जाता हैं) लागते हुए कहा, नहीं मेरे बच्चे हर चीज का मृत्यु नहीं हो सकता हैं। हाँ बदलाव जरूर हो सकता हैं, ये प्रकृतिक का नियम ही रहा है। कुमकुम(बिंदेश्वरी सर मुझे प्यार से कुमकुम बुलाते थे, अब मेरा नाम विक्रम अगस्त्य हैं।) मेरे बच्चे इस संसार में जो भी जीव-निर्जीव हैं, उसमे बदलाव और मृत्यु का पुरा ही प्रकृतिक सच हैं। पुरा दिन यूं ही मायूसी से कट गया था। फिर शाम हुआ मैं जैसे ही पढऩे बैठा मां ने डिबिया जलाकर सामने रख दी। मैंने डिबिया के लोह को गौर से देख रहा था। वो बेहद खूबसूरत और मुस्कुरा कर नृत्य कर रही थी। पुरें दिन की मायूसी एकपल में उड़नछू हो गया। मैं पैंसिल से उसके लोह के साथ खेलने लगा। वो कभी शर्माने लगती थी , तो फिर से उसे अपने अंगुलियां से उसे नृत्य करने के लिए मजबूर कर देता। ना जानें माँ मेरे बगल में कब बैठी मालूम ही ना चला। डिबिया के लोह के साथ खेलते खेलते इतना वक्त हो गया था, कुछ पता ही ना चला। माँ मेरे बगल में ही सो गयीं थी , और ये पहली बार हुआ था, रात के शायद दोहरी पहर चल रहा था। तभी पिताजी आ गये , माँ जग गई थी, पिताजी और माँ दौनों ने मेरे पास बैठकर मुझे आश्चर्य नजरों से देख रहा था। क्योंकि में कभी भी देर रात तक नहीं जगता था। शायद वो आखिरी रात था, उस डिबिया के लोह के रौशनी का....और मैं हमेशा खुश हूँ, कि मेरे साथ मेरे पिता-माँ इस सौंदर्य नजारों का साक्ष्य गवाह थे। -Vikram Agastya Follow more such stories by Vikram Agastya https://nojoto.com/post/fab877399280c414dcc11f09c49b46ac @Nojoto

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Vikram Agastya

सर्दियों की रात # "सर्दियों के रात" सड़क से प्रेम और वादा/विक्रम अगस्त्य /_ सर्दियों के रात, विरान पड़ी सड़कें.. दोस्तों के चल रहे थे, कंधे पे हाथ रख हमसभी कुछ गुनगुना रहे थे। सर्द हवाएं साथ निभा रही थी, शायद हम लड़कों की अल्हड़पन को देख,

सर्दियों की रात # "सर्दियों के रात" सड़क से प्रेम और वादा/विक्रम अगस्त्य /_ सर्दियों के रात, विरान पड़ी सड़कें.. दोस्तों के चल रहे थे, कंधे पे हाथ रख हमसभी कुछ गुनगुना रहे थे। सर्द हवाएं साथ निभा रही थी, शायद हम लड़कों की अल्हड़पन को देख,

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Vikram Agastya

"सर्दियों के रात" सड़क से प्रेम और वादा/विक्रम अगस्त्य #नवयुवकों का प्रकृतिक प्रेम "सर्दियों के रात" सड़क से प्रेम और वादा/विक्रम अगस्त्य_ /_ सर्दियों के रात, विरान पड़ी सड़कें.. दोस्तों के चल रहे थे, कंधे पे हाथ रख हमसभी कुछ गुनगुना रहे थे। सर्द हवाएं साथ निभा रही थी,

"सर्दियों के रात" सड़क से प्रेम और वादा/विक्रम अगस्त्य #नवयुवकों का प्रकृतिक प्रेम "सर्दियों के रात" सड़क से प्रेम और वादा/विक्रम अगस्त्य_ /_ सर्दियों के रात, विरान पड़ी सड़कें.. दोस्तों के चल रहे थे, कंधे पे हाथ रख हमसभी कुछ गुनगुना रहे थे। सर्द हवाएं साथ निभा रही थी,

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Vikram Agastya

"सर्दियों के रात" सड़क से प्रेम और वादा/विक्रम अगस्त्य
     
/_ सर्दियों के रात, विरान पड़ी सड़कें..
दोस्तों के चल रहे थे, कंधे पे हाथ रख 
हमसभी कुछ गुनगुना रहे थे।
सर्द हवाएं साथ निभा रही थी, 
चाँद बादलों के पीछे शरमा रही थीं।
विक्रम अगस्त्य झूम उठा ,
दोस्तों ने संगीत की रंज भरा,
मौसम भी महक उठा , 
चाँद भी संमा देख खूबसूरत रौशनी से दहक उठा,
मनोरंजन का पल था, विरान सड़कें भी जग रहा था।

"कुछ दूर चलते ही सड़क की आखिरी छोर तक पहुंचा।
              ना जानें वो सड़कें मुझे से कुछ कह रही थी।
राही तो चलते हैं, मुझपे अनेक...
इतना जख्म मिला, इतना दरारें मिले,
       ना जाने तुम कहाँ से आऐं हो, ऐ राही आज मुझे तुमसे सच्चा प्यार मिला।
विक्रम अगस्त्य_ मेरे चहेरे पे ठंडी मुस्कान दिखा,
मैं उस सड़क को पीछे मुड़ -मुड़कर देख...
उससे वादा कर बैठा...ये संमा वापस आऐगी, ये सर्द रात भी होगीं, चाँद की खूबसूरती भी होगीं, ये दोस्त भी साथ होगें, और विक्रम अगस्त्य का आशिकाना अंदाज़ भी होगा।
            "मन' इतना कह निकल पड़ा आगे.....।
      
                          _-Vikram Agastya #NojotoQuote विक्रम अगस्त्य और सर्दियों में सड़कों से प्रेम
"सर्दियों के रात" सड़क से प्रेम और वादा/विक्रम अगस्त्य
     
/_ सर्दियों के रात, विरान पड़ी सड़कें..
दोस्तों के चल रहे थे, कंधे पे हाथ रख 
हमसभी कुछ गुनगुना रहे थे।
सर्द हवाएं साथ निभा रही थी, 
चाँद बादलों के पीछे शरमा रही थीं।

विक्रम अगस्त्य और सर्दियों में सड़कों से प्रेम "सर्दियों के रात" सड़क से प्रेम और वादा/विक्रम अगस्त्य /_ सर्दियों के रात, विरान पड़ी सड़कें.. दोस्तों के चल रहे थे, कंधे पे हाथ रख हमसभी कुछ गुनगुना रहे थे। सर्द हवाएं साथ निभा रही थी, चाँद बादलों के पीछे शरमा रही थीं।

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Vikram Agastya

 Dr.Vikram Agastya
मैं [विक्रम अगस्त्य] जानता हूँ, मुझसे प्रेम और नफरत करने वाला भी मुझसे प्यार करता हैं। क्योंकि वो मेरे बारे में कुछ तो सोच रहा हैं;और मुझे उनसे कुछ नहीं कहना है, बस या तो मुझे रूला दो या हँसा दो, मैं चाहता हूँ, उनके दिल को सिर्फ़ सकुन मिलें।
                   मैं दुनिया के लिए नीम का पेड़ जैसा हूँ।
मेरे पत्ते[संवाद] कड़वे तो होते हैं, मगर उनके सेहत के लिए फायदेमंद जरूर साबित होता हूँ।
                         -Vikram Agastya #NojotoPhoto

Dr.Vikram Agastya मैं [विक्रम अगस्त्य] जानता हूँ, मुझसे प्रेम और नफरत करने वाला भी मुझसे प्यार करता हैं। क्योंकि वो मेरे बारे में कुछ तो सोच रहा हैं;और मुझे उनसे कुछ नहीं कहना है, बस या तो मुझे रूला दो या हँसा दो, मैं चाहता हूँ, उनके दिल को सिर्फ़ सकुन मिलें। मैं दुनिया के लिए नीम का पेड़ जैसा हूँ। मेरे पत्ते[संवाद] कड़वे तो होते हैं, मगर उनके सेहत के लिए फायदेमंद जरूर साबित होता हूँ। -Vikram Agastya Photo #nojotophoto

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Vikram Agastya

"मेरी डिबिया की रौशनी"/विक्रम अगस्त्य #बचपन " पुस कि रात और मेरी डिबिया की रौशनी" [ विक्रम अगस्त्य] बेहद ठंड होती हैं, पुस की रात..... वो दौर था उस वक्त का जब हमारे गांव में बिजली नहीं हुआ करता था। डिबिया के रौशनी में पढ़ा करते थे। यकीन मानिए दोस्तों वो दौर ही इतना मनमोहक था। शाम होते ही फिर वहीं छोटीसी प्यारी डिबिया के पास बैठ कर " हल्कू और सिरचन के कहानियां पढ़़ा करते थे। मेरी माँ हमेशा सब घरेलू काम निपटा कर बैठ जाती थी, मेरे पास , जब मैं पढ़ते पढ़ते सो जाता

"मेरी डिबिया की रौशनी"/विक्रम अगस्त्य #बचपन " पुस कि रात और मेरी डिबिया की रौशनी" [ विक्रम अगस्त्य] बेहद ठंड होती हैं, पुस की रात..... वो दौर था उस वक्त का जब हमारे गांव में बिजली नहीं हुआ करता था। डिबिया के रौशनी में पढ़ा करते थे। यकीन मानिए दोस्तों वो दौर ही इतना मनमोहक था। शाम होते ही फिर वहीं छोटीसी प्यारी डिबिया के पास बैठ कर " हल्कू और सिरचन के कहानियां पढ़़ा करते थे। मेरी माँ हमेशा सब घरेलू काम निपटा कर बैठ जाती थी, मेरे पास , जब मैं पढ़ते पढ़ते सो जाता


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