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mohdarshmalik4665
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Mohd Arsh malik

pre medical aspirant New Delhi

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Mohd Arsh malik

Tumhe kya maalom!
kiyu khudkushi ki chaah rakhne wale khudkushi nahi karte !
Tumhe kya maalom !
zindegi ki chaah rakhne wale log ,
haadso mein!
 kiyu apaahiz(disable)  hogye;

©Mohd Arsh malik
  #samandar
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Mohd Arsh malik

chath (tarace) pe kamra
hai mera !

kamra bhi kone wala !! 

kaam asaani se hojata hai ,
rone wala !

©Mohd Arsh malik #WINDOWQUOTE poet UMAIR NAJMI

#WINDOWQUOTE poet UMAIR NAJMI

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Mohd Arsh malik

#breeze
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Mohd Arsh malik

ये अमल हम में है बे-इल्म परिंदों में नहीं 

हम जो इंसानों की तहज़ीब लिए फिरते हैं 

हम सा वहशी कोई जंगल के दरिंदों में नहीं 

इक बुझी रूह लुटे जिस्म के ढाँचे में लिए 

सोचती हूँ मैं कहाँ जा के मुक़द्दर फोड़ूँ 

मैं न ज़िंदा हूँ कि मरने का सहारा ढूँडूँ 

और न मुर्दा हूँ कि जीने के ग़मों से छूटूँ 

कौन बतलाएगा मुझ को किसे जा कर पूछूँ 

ज़िंदगी क़हर के साँचों में ढलेगी कब तक 

कब तलक आँख न खोलेगा ज़माने का ज़मीर 

ज़ुल्म और जब्र की ये रीत चलेगी कब तक

©Mohd Arsh malik poet sahir ludhyanwi
#womenday

poet sahir ludhyanwi #womenday

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Mohd Arsh malik

लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं 

रूह भी होती है उस में ये कहाँ सोचते हैं 

रूह क्या होती है इस से उन्हें मतलब ही नहीं 

वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं 

रूह मर जाते हैं तो ये जिस्म है चलती हुई लाश 

इस हक़ीक़त को न समझते हैं न पहचानते हैं 

कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है 

कितनी सदियों से है क़ाएम ये गुनाहों का रिवाज 

लोग औरत की हर इक चीख़ को नग़्मा समझे 

वो क़बीलों का ज़माना हो कि शहरों का रिवाज 

जब्र से नस्ल बढ़े ज़ुल्म से तन मेल करें 

ये अमल हम में है बे-इल्म परिंदों में नहीं

©Mohd Arsh malik poet sahir ludhyanwi #internationalwomenday

poet sahir ludhyanwi #internationalwomenday

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Mohd Arsh malik

मेहंदी लगाए सूरज जब शाम की दुल्हन को 

सुर्ख़ी लिए सुनहरी हर फूल की क़बा हो 

रातों को चलने वाले रह जाएँ थक के जिस दम 

उम्मीद उन की मेरा टूटा हुआ दिया हो 

बिजली चमक के उन को कुटिया मिरी दिखा दे 

जब आसमाँ पे हर सू बादल घिरा हुआ हो 

पिछले पहर की कोयल वो सुब्ह की मोअज़्ज़िन 

मैं उस का हम-नवा हूँ वो मेरी हम-नवा हो 

कानों पे हो न मेरे दैर ओ हरम का एहसाँ 

रौज़न ही झोंपड़ी का मुझ को सहर-नुमा हो 

फूलों को आए जिस दम शबनम वज़ू कराने 

रोना मिरा वज़ू हो नाला मिरी दुआ हो 

इस ख़ामुशी में जाएँ इतने बुलंद नाले 

तारों के क़ाफ़िले को मेरी सदा दिरा हो 

हर दर्दमंद दिल को रोना मिरा रुला दे 

बेहोश जो पड़े हैं शायद उन्हें जगा दे

©Mohd Arsh malik #Nature poet Allama Iqbal

#Nature poet Allama Iqbal

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Mohd Arsh malik

शरमाए जिस से जल्वत ख़ल्वत में वो अदा हो 

मानूस इस क़दर हो सूरत से मेरी बुलबुल 

नन्हे से दिल में उस के खटका न कुछ मिरा हो 

सफ़ बाँधे दोनों जानिब बूटे हरे हरे हों 

नद्दी का साफ़ पानी तस्वीर ले रहा हो 

हो दिल-फ़रेब ऐसा कोहसार का नज़ारा 

पानी भी मौज बन कर उठ उठ के देखता हो 

आग़ोश में ज़मीं की सोया हुआ हो सब्ज़ा 

फिर फिर के झाड़ियों में पानी चमक रहा हो 

पानी को छू रही हो झुक झुक के गुल की टहनी 

जैसे हसीन कोई आईना देखता हो 

मेहंदी लगाए सूरज जब शाम की दुल्हन को 

सुर्ख़ी लिए सुनहरी हर फूल की क़बा हो

©Mohd Arsh malik
  poet Allama Iqbal

poet Allama Iqbal #Shayari

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Mohd Arsh malik

दुनिया की महफ़िलों से उक्ता गया हूँ या रब 

क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो 

शोरिश से भागता हूँ दिल ढूँडता है मेरा 

ऐसा सुकूत जिस पर तक़रीर भी फ़िदा हो 

मरता हूँ ख़ामुशी पर ये आरज़ू है मेरी 

दामन में कोह के इक छोटा सा झोंपड़ा हो 

आज़ाद फ़िक्र से हूँ उज़्लत में दिन गुज़ारूँ 

दुनिया के ग़म का दिल से काँटा निकल गया हो 

लज़्ज़त सरोद की हो चिड़ियों के चहचहों में 

चश्मे की शोरिशों में बाजा सा बज रहा हो 

गुल की कली चटक कर पैग़ाम दे किसी का 

साग़र ज़रा सा गोया मुझ को जहाँ-नुमा हो 

हो हाथ का सिरहाना सब्ज़े का हो बिछौना 

शरमाए जिस से जल्वत ख़ल्वत में वो अदा हो

©Mohd Arsh malik #citylight poet Allama Iqbal

#citylight poet Allama Iqbal

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Mohd Arsh malik

#sorrow
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Mohd Arsh malik

#poetryunplugged
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