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Shayari
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न ही कोई दरख़्त हूँ न सायबान हूँ बस्ती से जरा दूर का तन्हा मकान हूँ। *जो चाहो वो हर बार मिल जाए तो ज़िंदगी और ख़्वाब में फ़र्क़ क्या रह जाएगा।
गुजरते लम्हें।