तिश्नगी है कि बढ़ती जा रही है
तीरगी अलग ज़ुल्म ढा रही है
मेरे सुतून-ए-हवास को तेरी याद
किसी दीमक की तरह खा रही है
तेरी यादें और उस पर तन्हाई
बारी बारी से खूँ जला रही है
तिश्नगी है कि बढ़ती जा रही है
तीरगी अलग ज़ुल्म ढा रही है
मेरे सुतून-ए-हवास को तेरी याद
किसी दीमक की तरह खा रही है
तेरी यादें और उस पर तन्हाई
बारी बारी से खूँ जला रही है
मेरे हमनशीं बता दे
यूं ज़ुबाँ से कुछ ना कहना यूं तेरा नज़र झुकाना
मेरे हमनशीं बता दे क्या ये रस्म-ए-आशिक़ी है
कभी तुझको पा के खोना कभी खो के तुझको पाना
मेरे हमनशीं बता दे क्या ये रस्म-ए-आशिक़ी है
तेरे शोख़ सुर्ख़ आरिज़, मेरे इन लबों की ज़द में
यूँ हया से कांप जाना फिर सिमट के अपनी हद में
मेरे हमनशीं बता दे
यूं ज़ुबाँ से कुछ ना कहना यूं तेरा नज़र झुकाना
मेरे हमनशीं बता दे क्या ये रस्म-ए-आशिक़ी है
कभी तुझको पा के खोना कभी खो के तुझको पाना
मेरे हमनशीं बता दे क्या ये रस्म-ए-आशिक़ी है
तेरे शोख़ सुर्ख़ आरिज़, मेरे इन लबों की ज़द में
यूँ हया से कांप जाना फिर सिमट के अपनी हद में
सय्याद- शिकारी/hunter
शीरीं, फ़रहाद- बताने की ज़रूरत है क्या🤔🤔
अलहदा- अलग होना/apart/ मल्लब ब्रेकअप🙄
तासीर- असर/प्रभाव/effect
हाँ तो तमाम हम-सुख़न शायरों और क़ायरीन(रीडर्स) को मेरा सलाम,
अब सवाल ये उठ रहा है कि आखिर क्यों लिखा ये सब ?
मल्लब क्या ज़रूरत थी, बैठे बैठे पेट्रोल लगाने की? #Poetry