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raznawadwi7818
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Raz Nawadwi

"ग़ज़ल का ककहरा" पुस्तक के लेखक। कलमी नाम राज़ नवादवी, पैतृक/मात्रिक नाम मनोज कुमार सिन्हा। नवादा, बिहार की पैदाइश। पटना और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य, मनोविज्ञान, दर्शन शास्त्र, एवं समाज कार्य का अध्ययन किया। उच्चतम डिग्री स्नातकोत्तर। 29 वर्षों से सामाजिक विकास की परियोजनाओं पर कार्यरत। 15 से ज़्यादा राज्यों में सरकारी, स्वयंसेवी, एवं कॉरपोरेट सेक्टर की संस्थाओं के साथ जनविकास की योजनाओं का क्रियान्वयन किया। पिछले 13 वर्षों से भोपाल में आवास। तरुणावस्था से ही हिंदी, उर्दू, और मिर्ज़ा ग़ालिब से लगाव रहा। उर्दू का ज्ञान स्वयं के प्रयासों से प्राप्त किया। अब तक 1000 से ज़्यादा मेयारी ग़ज़लों की रचना, वह भी सिर्फ़ 3.5 वर्षों के सघन लेखन काल में, 100 से अधिक हिंदी अतुकांत कविताओं का सृजन, 100 से अधिक डायरी के पन्नों का लेखन, 100 से अधिक ग़ज़ल के छंद शास्त्र एवं ग़ज़ल लिखने की बारीक़ियों पर मौलिक लेख। इनके अलावा योग एवं अध्यात्म में गहरी रुचि। शतरंज, क्रिकेट, संगीत, जानवरों, विशेषकर कुत्तों, एवं पुस्तकों से गहरा लगाव। एक अच्छा कुक एवं व्यवस्थापक। साहित्य में सौंदर्य, प्रेम, जीवन की विवशता, एवं दिव्य अनुभवों के चित्रण की ओर विशेष झुकाव। आध्यात्मिक विचार- पूरी सृष्टि के केंद्र में ईश्वर है जबकि मनुष्य परिधि पे। जीवन का लक्ष्य केंद्र की ओर बढ़ना है। समस्त चराचर जगत स्वप्न मात्र है, मगर जब तक हम इस स्वप्न में हैं तब तक यह एक सच्चाई है। इस वैश्विक स्वप्न से जागना एवं चैतन्य अवस्था में बाहर निकल पाना ही मोक्ष है। ईश्वर के अलावा कुछ भी सत्य नहीं है। @राज़ नवादवी

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Raz Nawadwi

1222-1222-1222-1222

ये दुन्या जीत जाती है, विधाता हार जाता है
कथा का सार है के अन्नदाता हार जाता है //१

जहाँ पे खेत में लगने लगी है फ़ैक्ट्री, दिहकाँ
वहाँ पे भूख से दामन छुड़ाता हार जाता है //२

~राज़ नवादवी

©Raz Nawadwi #farmersprotest
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Raz Nawadwi

#ग़ज़लغزل: ३२०
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2122-1122-1122-22

माँ ये कहती है बुढ़ापा भी दग़ा देता है
जिसको भी देखो वही आके रुला देता है //१

याद रखता है बशर दौरे गुज़श्ता को मगर 
वो फ़रिश्ता है जो माज़ी को भुला देता है //२

रूह सिलती है हर इक लम्हा बदन का कपड़ा
वक़्त जिसपे किसी दिन कैंची चला देता है //३

अपने नाक़रदा फ़रायज़ की नदामत के सबब
आदमी लाश को अच्छे से सजा देता है //४

रिज़्क़ देता है ख़ुदा किर्मों को चाहे तो मगर
अच्छे अच्छों को वो मिट्टी में मिला देता है //५

शाहे मख़लूक़ का अदना सा हूँ नौकर मैं ऐ 'राज़'
भर के ख़ुद को भी जो मुट्ठी में उड़ा देता है //६

~राज़ नवादवी®

©Raz Nawadwi #worldpostday
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Raz Nawadwi

#ग़ज़लغزل: ३१९
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2122-1122-1122-22

माँ ये कहती है बुढ़ापा भी दग़ा देता है
जिसको भी देखो वही आके रुला देता है //१

याद रखता है बशर दौरे गुज़श्ता को मगर 
वो फ़रिश्ता है जो माज़ी को भुला देता है //२

रूह सिलती है हर इक लम्हा बदन का कपड़ा
वक़्त जिसपे किसी दिन कैंची चला देता है //३

अपने नाक़रदा फ़रायज़ की नदामत के सबब
आदमी लाश को अच्छे से सजा देता है //४

रिज़्क़ देता है ख़ुदा किर्मों को चाहे तो मगर
अच्छे अच्छों को वो मिट्टी में मिला देता है //५

शाहे मख़लूक़ का अदना सा हूँ नौकर मैं ऐ 'राज़'
भर के दुन्या भी जो मुट्ठी में उड़ा देता है //६

~राज़ नवादवी®

©Raz Nawadwi #worldpostday
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Raz Nawadwi

2122-1122-1122-22
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क़ौमी अलगाव की तासीर कभी देखो तुम 
जा के पंजाब या कश्मीर कभी देखो तुम //१

सिर्फ़ इल्ज़ाम लगाने से नहीं कुछ होगा 
आ के इस ओर की तस्वीर कभी देखो तुम //२

©Raz Nawadwi #HBDShastriJi
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Raz Nawadwi

#ग़ज़लغزل: ३१४
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2122-1212-22

जिस्म में जैसे रोग होते हैं
'राज़', ऐसे भी लोग होते हैं //१

सिर्फ़ चाहे से कुछ नहीं होता
अच्छे कामों के जोग होते हैं //२

सच में सुख-दुख तो कुछ नहीं होता 
अपने कर्मों के भोग होते हैं /३

रोज़ मरती है ज़ीस्त तिल तिल कर
रोज़ हम ज़ेरे सोग होते हैं //४

#राज़_नवादवी
(एक अंजान शाइर)
💞💞

©Raz Nawadwi #Janamashtmi2020
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Raz Nawadwi

2122-1122-1122-22
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शुक्र है उसका तुझे जिसने डराया इक दम
जाने कब मुझसे तेरा फिर यूँ चिपकना होगा //१

गरचे अच्छा है मगर 'राज़' पता था ये किसे
प्यार के खेल में यूँ रोना लिपटना होगा //२

#राज़_नवादवी #Love
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Raz Nawadwi

ग़ज़ल-२६३ (२२१-२१२१-१२२१-२१२)
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ख़जलत किसी भी बात पे ताज़िंदगी न हो
बिछड़ो भी इस तरह से कि शर्मिंदगी न हो //१

तू गर न हो ख़्याल में तो क्या लिखूँ ग़ज़ल
तेरे बिना तो चाँद में ताबिंदगी न हो //२

जिसमें तड़पना पड़ता है दिल को हरेक गाम 
अल्लाह ऐसी और कोई ज़िंदगी न हो //३

अहसासे रब में ता अबद हो जाऊँ मैं फ़ना
अब और मेरी बूद में पाइंदगी न हो //४

हरदम रहे तुम्हें इसी इक बात का ख़्याल
अल्लाह के मकाँ कोई शर्मिंदगी न हो //५

अगला जनम जो हो कोई तो 'राज़' कर दुआ 
ज़ाहिद बने तू, नफ़्स की ख़्वाहिंदगी न हो //६

~राज़ नवादवी® #Dosti
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Raz Nawadwi

ग़ज़ल-२६२ (२१२२-११२२-११२२-२२)
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मकतबे दिल में न तख़्ती न कलम बाक़ी है
ख़िलजी-ए-इश्क़, तेरा कौन सितम बाक़ी है //१

मुझको माशूक़ ने लूटा है ग़ज़नवी बन के 
शह्रे दिल में कोई मंदिर न सनम बाक़ी है //२

आओ भरते हैं जवानी के चिलम में सुल्फ़ा
इश्क़ के सीने में कश लेने को दम बाक़ी है //३

अब तो बस होती है अदांज़ो तरन्नुम से अदा 
अब कहाँ शाइरी में ज़ोरे कलम बाक़ी है //४

दिल तो तोड़ा है मगर जान है मब्नी जिसपे 
तोड़ने को वही बस एक क़सम बाक़ी है //५

उम्र गुज़री है मेरी हार का अहसास लिए
आज़माने को अभी 'राज़' अदम बाक़ी है //६

~राज़ नवादवी® #shore
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Raz Nawadwi

ग़ज़ल-२६१ (१२२२-१२२२-१२२)
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मज़े सब सूफ़ियाना चाहता हूँ
मैं संसद चुन के जाना चाहता हूँ //१

बना कर मूर्ख छोटी मछलियों को
बड़ी मछली फँसाना चाहता हूँ //२

सियासत को पड़ा मिर्गी का दौरा
उसे जूता सुँघाना चाहता हूँ //३

जहाँ का फ़ोन उठ जाए समय पर
मैं इक ऐसा भी थाना चाहता हूँ //४

जो रिश्वतख़ोर हैं उनके मकाँ पे
मैं बुलडोज़र चलाना चाहता हूँ //५

खुले में मुजरिमों के वास्ते अब 
सज़ा-ए-ताज़ियाना चाहता हूँ //६

रहूँ पी कर भी चुप तो क्या मज़ा है 
मैं पीकर बड़बड़ाना चाहता हूँ //७

सभी से कह दो कर लें बंद आँखें 
मैं सच नंगा दिखाना चाहता हूँ //८

पता मुझको नहीं है 'राज़' ख़ुद भी
मैं क्यों ठेके पे जाना चाहता हूँ //९

#राज़_नवादवी #AlvidaJumma
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Raz Nawadwi

ग़ज़ल- २६० (२१२२-११२२-११२२-२२)
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हिज्र के शह्र में बादल नहीं, बरसात नहीं
इससे बढ़कर बुरे दोज़ख़ के भी हालात नहीं //१

उनको क्या उजले सवेरों की ख़ुशी हो मालूम
जिनकी क़िस्मत में मुहब्बत की सियह रात नहीं //२

मेरे लब पर हैं रखे लब तेरे, मैं क्या बोलूँ
ज़िन्दगी भर भी न बोलूँ तो कोई बात नहीं //३

जानवर और नबातों से नहीं प्यार जिन्हें 
यूँ वो दिखते हैं मगर आदमी की ज़ात नहीं //४

'राज़' उल्फ़त के दयारों में उदासी है बहुत
जितनी क़ब्रें हैं यहाँ उतने मकानात नहीं //५

~राज़ नवादवी®

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