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karan kapoor
गणेश
करके अपना पाषाण हृदय सत्रह दिन युद्ध लड़ा निर्भय हे भाई! अब ऐसा लगता होगा न कभी फिर भानु-उदय मेरे सत्कर्म रहे हों यदि, इस क्रूर-निशा का अंत न हो अम्बर को चीर विशिख-चपला, चीरे जो वक्ष मेरा तन हो तड़-तड़ाक टूटे मुझ पर, देखूँ न अगला दिवस कभी अथवा कड़-कड़-कड़-कड़कड़ाक, फट जाये उतनी भूमि अभी जितनी भू में इस दुष्ट-अधम-पापी की देह समा जाये या काल कुटिल-दसनों से ही, जीवन ये तुच्छ चबा जाये हे ग्रह-नक्षत्र-तारिकाओं! उल्कायें मुझ पर बरसाओ हे भूधर! निज भूखण्ड-महा धम-धम-धम-धम्म गिरा जाओ या जलनिधि बनके काल-ब्याल, कल्लोल-कराल उठाओ अब खल-विकल जलाजल कल-कल कर जल-तल के मध्य डुबाओ अब हे पवनदेव! उनचास पवन ले, घोर-भयावह रूप धरो जिस कर के शर भाई मारा, वो कर विछिन्न तत्काल करो। :- ✍️ गणेश शर्मा 'विद्यार्थी' (रश्मिरथी- 'आठवाँ सर्ग' से) ©गणेश #RASHMIRATHI