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Mohan Somalkar
पंढरीची वारी॥ वाटे मज करु॥ हाती ध्वज धरु॥ विठ्ठलाचा॥१॥ चंद्रभागे तिरी ॥ स्नान चला करु॥ पहाट पहरु ॥ नाम घेऊ॥२॥ कर कटा वरी॥ पांडुरंग उभा॥ दर्शनाची मुभा ॥ सकलांना॥३॥ किर्ती रुपे ऊरु॥ ऐकुया कीर्तन ॥ आनंदले मन॥ विठुपायी॥४॥ नाम त्याचे स्मरु॥ पाहुनिया स्वरुप ॥ डोळ्यात ते रुप ॥ सदा भरु॥५॥ ●॰जय हरी विठ्ठल ॰● मोहन सोमलकर नागपुर ©Mohan Somalkar #रुप
Pranav Dixit
Pawan Munda
चेहरे तो यहां एक है रुप यहां अनेक बातें यहां नही दिखता इरादें सबका दिखता है खुद को लाख छिपा लो कितना हकीक़त चेहरे पे दिखता बातें चाहें बना लो कितना होठों पे हकीक़त न छिपता अंदर जैसा विचार है चलता बाहर चाल ढाल में दिखता बदलाव ऐ कैसे हो रहा है ख़ुद से अनभिग लोग हैं रहता गुणों में चरित्र ऐसा गुण है अंदर को बाहर, बाहर को अंदर ले जाता है जैसा आप बना चाहते है वैसा आपको बनाता है ©Pawan Munda चेहरे यहां एक है पर रुप यहां अनेक
चेहरे यहां एक है पर रुप यहां अनेक
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