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Upendra K
आंगन में लिये चांद के टुकड़े को खड़ी हाथों पे झुलाती है उसे गोद-भरी रह-रह के हवा में जो लोका देती है गूंज उठती है खिलखिलाते बच्चे की हंसी नहला के छलके-छलके निर्मल जल से उलझे हुए गेसुओं में कंघी करके किस प्यार से देखता है बच्चा मुंह को जब घुटनियों में लेके है पिन्हाती कपड़े दीवाली की शाम घर पुते और सजे चीनी के खिलौने जगमगाते लावे वो रूपवती मुखड़े पै इक नर्म दमक बच्चे के घरौंदे में जलाती है दिए आंगन में ठुनक रहा है ज़िदयाया है बालक तो हई चांद पै ललचाया है दर्पण उसे दे के कह रही है मां देख आईने में चांद उतर आया है रक्षाबंधन की सुबह रस की पुतली छायी है घटा गगन की हलकी-हलकी बिजली की तरह चमक रहे हैं लच्छे भाई के है बांधती चमकती राखी - फ़िराक गोरखपुरी firaq gorakhpuri
firaq gorakhpuri
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