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ओम भक्त "मोहन" (कलम मेवाड़ री)

समाज सुधार का लिये--- पहले स्वंय के "राजा राम मोहन राय बने"! क्योकि इससे बिना समाज सुधार संभव नही ----समाज आप से बनता है आप समाज से नही। आप

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Priya Kumari Niharika

शीर्षक: हिंदी घूंट रही है श्वास मेरी धड़कने भी थम रहीं, धीरे धीरे सच कहूँ तो भूमिका भी कम रही, देखकर ये हाल अपना, आँख मेरी नम रही, सोचकर भव

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शीर्षक: हिंदी
 घूंट रही है श्वास मेरी धड़कने भी थम रहीं,
 धीरे धीरे सच कहूँ तो भूमिका भी कम रही,
देखकर ये हाल अपना, आँख मेरी नम रही,
सोचकर भविष्य अब तो, अस्थियां ये जम रही,
 थी कभी गरिमामयी में, हो चली हूं अब गवारू
भेद अपनों ने किया तो, दुर्दशा कैसे सुधारू,
लुप्त होने की आशंका, मन से मैं कैसे उतारू
और बन गई उपेक्षिता मैं,सत्ता ये कैसे सवारू,
खानापूर्ति रह न जाऊं, गुम न हो उपलब्धियाँ,
न मनाए यूं ही मेरी, व्यर्थ की जयंतीयाँ

संस्कृति की प्राण थी कल तक, आज विषय में सीमित हुई
महता केवल इतनी मेरी, मातृभाषा के निमित्त हुई
 रुप रंग भी देश का बदला,बदल गई संस्कृति भी
 बदल गई अस्तित्व भी मेरी, मिटी पुरानी प्रीति भी
 अल्पसंख्यक सा हाल हमारा,हिंदी दिवस है आरक्षण
 कल तक जिसकी वाणी में,गाया करता था जन जन
 विश्व में तीसरी सबसे अधिक,बोली जाने वाली भाषा हूँ
राष्ट्र की भाषा बनी न अबतक,इसके लिए हताशा हूँ
देशप्रेम के धुन से सृजित, जन गण मन की गान हूँ मैं
कृषक और मजदूर ही नहीं, सबके लिए समान हूँ मैं
वंचित मुझको बना रहे क्यूँ, देश की ही पहचान हूँ मैं
विविधता में एकता हूँ, जीता हिंदुस्तान हूँ मैं,
माता कैसे हुई परायी, इससे तो अनजान हूँ मैं
 अपनी ही धरती पर देखो, हिंदी दिवस की मेहमान हूँ मैं,
'भूल गए क्यूं हिंदुस्तानी, इनका ही सम्मान हूँ मैं,
 अनुभूति की अभिव्यक्ति हूँ, फिर भी नहीं महान हूँ मैं
विवेकानंद या राम मोहन राय, के संघर्षों की निशान हूँ मैं
कल की अंशुमान न शायद, ढलता बस अवसान हूँ मैं
भाषायी विच्छेद देखकर, सचमुच ही हैरान हूँ मैं
विविध बोलियों की संगम हूँ, जीता हिंदुस्तान हूँ मैं

©Priya Kumari Niharika शीर्षक: हिंदी
 घूंट रही है श्वास मेरी धड़कने भी थम रहीं,
 धीरे धीरे सच कहूँ तो भूमिका भी कम रही,
देखकर ये हाल अपना, आँख मेरी नम रही,
सोचकर भव

Rishika Srivastava "Rishnit"

ब्रिटिश शासन काल में स्त्रियों की परिस्थितियों के कुछ सुधार आया, क्योंकि शिक्षा का विस्तार किया गया। लड़कियों की शिक्षा में ईसाई मिशनरियाँ र

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#AzaadKalakaar #AzaadKalakaar

स्त्री विमर्श क्यो??

स्त्री विमर्श वास्तव में एक जटिल प्रश्न बनकर युगांतर से मन को गुदगुदा ता आ रहा है यद्यपि नारी की उपस्थिति तो साहित्य की हर विद्याओं में किसी न किसी रूप में सदा से रहती ही आ रही है तब फिर इसी औचित्यता पर प्रश्नचिन्ह क्यों अंकित होता रहा है? हमारा देश आज़ाद हो चुका है फिर भी स्त्री की दशा आज भी दयनीय क्यों??

स्त्री विमर्श के विषय में एक  प्रश्न और विचारणीय है कि क्या स्त्री द्वारा लिखित साहित्य स्त्रीवादी साहित्य होता है मेरे विचार से स्त्री या पुरुष के लेखन का नहीं है बस है स्त्री विमर्श पर कदम उठाने वाला या कलम उठाने वाली स्त्री स्वभाव का स्त्री समस्याओं की गहराई से परिचित है या नहीं स्त्री की पीड़ा उस पर हो रहे अत्याचार उत्पीड़न शोषण की कसक आदि को  कभी मानसिक या वैचारिक रूप से भोगा है या नहीं।

वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति संतोषजनक थी। समाज में स्त्री पुरुष दोनों समान रूप से सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकारी थे। पुत्र या पुत्री के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं था। सामाजिक, आर्थिक शैक्षिक तथा धार्मिक कार्यों में दोनों की समान भागीदारी थी। पुत्र या पुत्री के पालन पोषण में भी कोई अंतर नहीं माना जाता था ।इस युग की सबसे बड़ी उपलब्धि थी के पुत्र की शिक्षा के साथ-साथ पुत्रियों तथा स्त्रियों की शिक्षा पर भी गंभीरता पूर्वक ध्यान दिया जाता था। परिणाम स्वरूप लोपामुद्रा, विश्ववारा, घोषा, सिक्त निवावरी जैसी कवि तथा मंत्र और सुक्तों के प्रसिद्ध रचयिता इसी युग की देन है ।  इसी युग में हुई स्त्री विकास के मार्ग में बाधक जैसे परंपरा नहीं थी। स्त्रियों को इच्छा अनुसार जीवन जीने की स्वतंत्रता प्राप्त थी।

वैदिक काल और परिस्थितियों मैं शनै शनै परिवर्तन होने जैसा प्रतीत होने लगा यद्यपि पुत्री की शिक्षा-दीक्षा पूर्व चलती रहे तभी समाज की मानसिकता बदल गई। कालांतर में पुत्री भी स्वयं को पुत्र की तुलना में ही समझने लगी। चुकी इस युग में पर्दा प्रथा की चर्चा तो नहीं है। फिर भी नहीं रह गई सार्वजनिक सभा तथा धार्मिक अनुष्ठान में अपनी भागीदारी निभाने से वंचित होने लगी पुत्री का विवाह कम आयु में करने का विवाद चल पड़ा पुत्र-पुत्रियों के जन्म पर भी भेदभाव होने लगा। पुत्र का जन्म उत्सव मनाया जाने लगा लेकिन पुत्री के जन्म को अभिशाप समझा जाने लगा। पुत्रियों को वेदाध्ययन के अधिकार से बातचीत होना पड़ा।
महाभारत में द्रोपदी के के लिए "पंडित" शब्द का विशेषण आया।ऐसी पंडिता जो माँ कुंती के आदेश के पाँच पतियों में बँटकर जीवन व्यतीत करने के लिए विवश हो जाती है। कुंती जो विशिष्ट आदर्श कन्याओं में गिनी जाती है समाज के भय से सूरज को समर्पित अपनी को कोम्यता के फलस्वरूप प्राप्त पुत्र रत्न को नदी में प्रवाहित करने हेतु विवश हो जाती है. सती साध्वी राज कुलोधभूता सीता एक साधारण पुरुष के कहने पर अपने पति श्री राम द्वारा परित्यक्ता वन अकारण वनवास के दुःख झेलती है।विचारणीय है यदि उस समय की सधी और मर्यादाओं  से बंधी राजकन्या हो कि यदि ऐसी स्थिति की सामान्य स्त्रियों की दशा कैसी रही होगी. चुकी इस काल में स्त्रियों को आर्थिक दृष्टि से पर्याप्त अधिकार प्राप्त है। माता-पिता आदि से प्राप्त धन स्त्री धन था ही विवोहरान्त या विवाह के समय पर आप उपहारों पर भी स्त्रियों का अधिकार था किंतु मनु विधान के अनुसार वह उसकी संपूर्ण स्वामिनी नहीं थीं। पति का अनुमति के बिना उसका एक पल भी उपयोग नहीं कर सकती थी।

खैर जैसा था- था लेकिन वर्तमान परिपेक्ष में भी हम देखते हैं कि आज भी पुरुषों की मानसिकता यथावत है।

 मुगल शासनकाल में चल रहे भक्ति आंदोलन के फल स्वरुप स्त्रियों को  सामाजिक तथा धार्मिक स्वतंत्रता मिली फलता बदलाव का बीज अंकुरित होने लगा।


【आगे अनुशीर्षक में पढ़े】

©rishika khushi ब्रिटिश शासन काल में स्त्रियों की परिस्थितियों के कुछ सुधार आया, क्योंकि शिक्षा का विस्तार किया गया। लड़कियों की शिक्षा में ईसाई मिशनरियाँ र

पंकज उदास

मोहन

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अगामी चास नगर निगम चुनाव मे वार्ड -16 से हमारी धर्मपत्नी को प्रत्याशी के रूप उतारना चाहता हूँ!! एक निचले स्तर की जिंदगी हमारा समाज सदियों से जी रहा है  क्या हमे समाज मे नेतृत्व करना का मौका नहीं मिलना चाहिए!चास की सेवा हमारा समाज एक लम्बे समय से कर रहा है!!!!
आप सभी देवतुल्य जनता से मार्गदर्शन चाहता हूँ !!


   निवेदक
  मोहन हाड़ी
           चास नगर निगम🙏🙏 मोहन

Gourav ^G^

मोहन

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श्याम कहाँ में जाऊ अब,अखियन में ये आस छुपाकर
प्रीत को तेरी हृदय समा, और दर्शन की ये प्यास दबाकर
ये जग सारा धुन्ध बना है, चले पवन जो उड़ जाए
मोह-मदादिक फसी रूह,तेरी चाह मिले सब मिट जाए
रेत बनी ये महल अटारी,पल भर ठहर फिसल जाए
पैसो के यहाँ खेल है सब, दास तेरे कहाँ जाए
बस दिल मे तुम बसे हो मोहन,ये दिल कहाँ ले जाये उठाकर #NojotoQuote मोहन

Mohan Gurjar

मोहन

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Upasna Sharma

मोहन

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मोहन तुम्हे देखा तो साँसे खिल गयीं
ऐसा लगा मानो मंज़िल मिल गई मोहन

Madhusudan Shrivastava

मेरे मोहन

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Anil Agrahari

Upasna Sharma

मोहन ❣️

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सह लेंगे हम हर गम दुनिया का
दूरी तुमसे नहीं सह पाएंगे
तुम ना मिले होते तो बात और थी
पर अब तुम से प्रीत हम नहीं तोड़ पाएंगे
तुम्हारे सहारे ही तो सांसे चलती हैं
जो तुम नाराज़ हुए तो हम जी नहीं पाएंगे

©Upasna Sharma मोहन ❣️
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