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JALAJ KUMAR RATHOUR
यार कॉमरेड, पता नहीं क्यूं आज तुम्हारी याद आ गई।शायद भूलना याद रखने से ज्यादा कठिन होता है।मैंने तुम्हारी तस्वीरों और तुम्हारे दिए खतों को बहा दिया है गंगा में। शायद हम जैसे दो विपरीत ध्रुवों को मिलाने के ,उनके द्वारा किए गए पाप धूल जाए।लेकिन सच कहूं यार हम विपरीत ध्रुवों से जरूर थे लेकिन एक आकर्षण बल जरूर था हमारे दर्मियान, जो हमें एक दूसरे से करीब लाता था।अंग्रेजी के ट्यूशन की पहली मुलाकात से लेकर चौराहे पर हमारी नज़रों का एक दूसरे से मिलकर बंट जाने तक, मैंने तुम्हारे संग मेरे जीवन के बेहतरीन पलो को जिया था।हमारे बीच ये अच्छा था कि हमने कभी कोई वादे नहीं किए।हां कुछ सपने जरूर देखे थे।वो सपने जिनका सच होना मेरे लिए सपनों की तरह होगा।सपने तो तुम्हारे भी थे ना।बहुत दूर जाने के।खुद का नाम बनाने के और एक सेल्फ डिपेंडेंट लड़की बनने के।तुम्हारे इंन सपनों के बीच में खड़ा था मैं अपने सपनों की कुर्बानी देने के लिए।क्युकी तुम्हारे चेहरे पर मुस्कान मेरा पहला और आखिरी सपना था और तुम्हे भूलना आज भी मेरी आखिरी ख्वाहिश।....#जलज कुमार ©JALAJ KUMAR RATHOUR यार कॉमरेड, पता नहीं क्यूं आज तुम्हारी याद आ गई।शायद भूलना याद रखने से ज्यादा कठिन होता है।मैंने तुम्हारी तस्वीरों और तुम्हारे दिए खतों को ब
यार कॉमरेड, पता नहीं क्यूं आज तुम्हारी याद आ गई।शायद भूलना याद रखने से ज्यादा कठिन होता है।मैंने तुम्हारी तस्वीरों और तुम्हारे दिए खतों को ब
read moreSurbhi Talreja
naari (read caption) naari औरत वैसे तो पूर्ण रूप से इंडेपेंडेंट है मगर हर फैसले के लिए पिता, पति, और बेटे पे डिपेंडेंट है हर लड़की को अच्छे से अच्छी शिक्षा दी
naari औरत वैसे तो पूर्ण रूप से इंडेपेंडेंट है मगर हर फैसले के लिए पिता, पति, और बेटे पे डिपेंडेंट है हर लड़की को अच्छे से अच्छी शिक्षा दी
read moreUnconditiona L💓ve😉
❊अमूल्य निधि ❊ ───────── होती हो...जब तुम, अँधेरी निशा में, प्रकाशित कोई दीप की आशा, एक तुलसी सी पावन तेरी परिभाषा, मेरी जीवन की तुझमें बची है"अमूल्य निधि " इस अबोध बालक के फटे थैले में तुम सदा मुस्कुराती रहना, मेले-मैले छवि को चमकाती रहना यहीं मेरी 'अंतिम अभिलाषा" [ प्रादुर्भाव हुआ है तुझसे *अनुशीर्षक में *] तुमनें जब लिखा था, तब पहाड़ों से टकराने की बिन मिले वापस विरह मुड़ जाने की बात कहीं थी,,, शायद तुम सही थी उस समय और अभी भी मैं एक पत्थर ही तो
तुमनें जब लिखा था, तब पहाड़ों से टकराने की बिन मिले वापस विरह मुड़ जाने की बात कहीं थी,,, शायद तुम सही थी उस समय और अभी भी मैं एक पत्थर ही तो
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