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Dipin Tarbundiya
हमनें भी जिद्द छोड़ दी उसे पा ने की... उसे लगता था कि हम बहुत जिद्दी हैं पर उसे ये पता नहीं था कि जिद्द से ज्यादा हमें हमारी इज्ज़त प्यारी थी... खुद की इज़्ज़त...
खुद की इज़्ज़त...
read moreManesh Bhuriya
#जोहार चूल्हे की रोटी खाने का और बनाने का अलग ही मजा है..🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🥰 शेरनी की भूख और 😎आदिवासी का लूक दोनों ही जानलेवा है ,,, ©Manesh Bhuriya चूल्हे की रोटी
चूल्हे की रोटी
read moreDr Upama Singh
"रोटी की मजबूरी" बहुत कुछ लिखा प्यार और प्यार के अभिव्यक्ति पर, पर आज सोच रही हूं लिखूं किसी नई परिस्थिति पर इसलिए लिख रही हूं आज कुछ नया पसंद अगर आए तो दुआ मुझे देना आज मैंने बारिश में गरीबी को भीगते देखा दो वक्त की रोटी के लिए मजदूरी करते देखा क्या करोना मारेगा इनको, गरीबी की विषम परिस्थिति पहले से ही है मारी मन इनका विचलित नहीं होता है क्या करेगा महामारी रोटी की कीमत पाने के लिए अपनी जान जोखिम में है डाली दो वक्त की रोटी के लिए उठा के चल दिए ठेला पहुंच गए लेकर लाश जहां लगा था शवों का मेला। "रोटी की मजबूरी"
"रोटी की मजबूरी"
read moreAuthor Sanjay Kaushik (YouTuber)
गटर में रोटी ©Sanjay Kaushik (YouTuber) रोटी की कीमत
रोटी की कीमत
read moreNeelam bhola
ज्यादा की चाह में थोड़ा मत खो, जो है पास संभाल,पीछे मत रो, तीन वक्त खाना तो मजदूर भी खाता है, तू क्यों दिखावे के लिए चांदी के थाल सजाता है, दूसरे की थाली पे नज़र,अपना निवाला भूल जाता है, प्यास पानी से ही बुझती है जानवर की भी, क्या वक्त है तू पानी की कीमत चुकाता है, मेहनत कर पानी चख,कुछ अलग मजा आता है, तिनके चुन चिड़िया घोसले बनाती है, मिट्टी की झोपड़ी महलों से भाती है, क्यों तू किसी के महल को आह! लगाता है, सोना गहना,सब क्षणभंगुर है सारे, ख्याति रहती है,ये सब छूट जाता है, ये चीजें भला कौन साथ ले जाता है, कर अपनी मेहनत पर यकीन, क्यों दूसरे की मेहनत पर नजर लगाता है, कह गए हैं संत-जितनी चादर पैर उतने फैलाओ, संतुष्टि की रोटी हो,चाहे एक वक्त ही खाओ!!!! -नीलम भोला संतुष्टि की रोटी
संतुष्टि की रोटी
read moreSaurabh Baurai
किल्लत रोटी की तब जानी जब रोटी ने नाता तोड़ा। कीमत खुद की तब पहचानी जब अपनो ने हाथ ये छोड़ा।। भटक रहे थे खाली पेट तो अश्रुनीर से प्यास बुझाई। थाम रहे थे जब खुद को तो हर दहलीज़ से ठोकर पाई।। गगन में उड़ना चाहा जब भी जंज़ीरों से लिपट गए। छाव की चाह में जब भी बैठें वृक्ष भी बहुधा सिमट गए।। दर्द भी पहले आंशू बनकर हर क्षण टपका करते थे। पूरे जग से होकर अक्सर मुझपर अटका करते थे।। विवश का आंगन छोड़ के इक दिन पृथक सा बनना ठान लिया। झूठे गणित के विश्व मे मैंने खुद को शून्य सा मान लिया।। ना जाने क्यों अब हर कोई मेरा साथ यूँ चाहते है। जग के बड़े अंक भी देखो शून्य से जुड़ना चाहते है।। जान गया हूँ जग से इतना रक्त तो यहां बहाना है। यहाँ से पाई हर रोटी का मोल ये सबको चुकाना हैं।। रोटी की कीमत
रोटी की कीमत
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