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Poet Shivam Singh Sisodiya
गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्। अर्थात देवगण निरन्तर यही गा
गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्। अर्थात देवगण निरन्तर यही गा
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धृतराष्ट्र का शोकातुर हो जाना और विदुरजी का उन्हें पुन शोक निवारण के लिये उपदेश पढ़िए महाभारत !! 🌷🌷 महाभारत: नवम पर्व चतुर्थ अध्याय: श्लोक 1-18 {Bolo Ji Radhey Radhey} धृतराष्ट्र का शोकातुर हो जाना और विदुरजी का उन्हें पुन: शोकनिवारण के लिये उपदेश :- 🎯 जनमेजय ने पूछा–विप्रर्षे ! भगवान् व्यास के चले जाने पर राजा धृतराष्ट्र ने क्या किया ? यह मुझे विस्तारपूर्वक बताने की कृपा करें। इसी प्रकार कुरुवंशी राजा महामनस्वी धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने तथा कृप आदि तीनों महारथियों ने क्या किया ?(Rao Sahab N S Yadav) 🎯 अश्वथामा का कर्म तो मैंने सुन लिया, परस्पर जो शाप दिये गये, उनका हाल भी मालूम हो गया। अब आगे का वृत्तान्त बताइये, जिसे संजय ने धृतराष्ट्र को सुनाया हो। वैशम्पायनजी ने कहा–राजन् ! दुर्योधन तथा उसकी सारी सेनाओं के मारे जाने पर संजय की दिव्य दृष्टि चली गयी और वह धृतराष्ट्र की सभा में उपस्थित हुआ। 🎯 संजय बोला–राजन् ! नाना जनपदों के स्वामी विभिन्न देशों से आकर सब-के-सब आप के पुत्रों के साथ पितृलोक के पथिक बन गये। भारत ! आपके पुत्र से सब लोगों ने सदा शान्ति केलिये याचना की, तो भी उसने वैर का अन्त करने की इच्छा से सारे भूमण्डलका विनाश करा दिया। महाराज ! अब आप क्रमश: अपने ताऊ, चाचा, पुत्र और पौत्रों का तृतक सम्बन्धी कर्म करवाइये। 🎯 वैशम्पायनजी कहते हैं–राजन् ! संजय का यह घोर वचन सुनकर राजा धृतराष्ट्र प्राणशून्य की भाँति निश्चेष्ट हो पृथ्वीपर गिर पड़े। पृथ्वीपति धृतराष्ट्र को पृथ्वी पर सोया देख सब धर्मों के ज्ञाता विदुरजी उनके पास आये और इस प्रकार बोले। राजन् ! उठिये, क्यों सो रहे हैं? भरतश्रेष्ठ ! शोक न कीजिये। लोकनाथ ! समस्त प्राणियों की यही अन्तिम गति है। 🎯 भरतनन्दन ! सभी प्राणी जन्म से पहले अव्यक्त थे, बीच में व्यक्त हुए और अन्त में मृत्यु के बाद फिर अव्यक्त ही हो जायेंगे, ऐसी दशा में उनके लिये शोक करने की क्या बात है। शोक करने वाला मनुष्य न तो मरे हुए के साथ जाता है और न ही मरता है। 🎯 जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है, तब आप किस लिये बारंबार शोक कर रहे हैं ? महाराज ! जो युद्ध नहीं करता, वह भी मरता है और युद्ध करने वाला भी जीवित बच जाता है। काल को पाकर कोई भी उसका उल्लंघन नहीं कर सकता। काल सभी विविध प्राणियों को खींचता है। 🎯 कुलश्रेष्ठ ! काल के लिये न तो कोई प्रिय है और न कोई द्वेष का पात्र ही। भरतश्रेष्ठ ! जैसे वायु तिनकों को सब ओर उड़ाती और गिराती रहती है, उसी प्रकार सारे प्राणी काल के अधीन होकर आते-जाते रहते हैं। एक साथ आये हुए सभी प्राणियों को एक दिन वहीं जाना है। 🎯 जिसका काल आ गया, वह पहले चला जाता है फिर उसके लिये व्यर्थ शोक क्यों ? राजन् ! जो लोग युद्ध में मारे गये हैं और जिनके लिये आप बारंबार शोक कर रहे हैं, वे महामनस्वी वीर शोक करने के योग्य नहीं हैं, वे सब-के-सब स्वर्गलोक में चले गये। अपने शरीर का त्याग करने वाले शूरवीर जिस तरह स्वर्ग में जाते हैं, उस तरह दक्षिणावाले यज्ञों, तपस्याओं तथा विद्या से भी कोई नहीं जा सकता। ©N S Yadav GoldMine #humanrights धृतराष्ट्र का शोकातुर हो जाना और विदुरजी का उन्हें पुन शोक निवारण के लिये उपदेश पढ़िए महाभारत !! 🌷🌷 महाभारत: नवम पर्व चतुर्थ
#humanrights धृतराष्ट्र का शोकातुर हो जाना और विदुरजी का उन्हें पुन शोक निवारण के लिये उपदेश पढ़िए महाभारत !! 🌷🌷 महाभारत: नवम पर्व चतुर्थ
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श्री कृष्ण का धृतराष्ट्र को फटकार कर उनका क्रोध शान्त करना और धृतराष्ट्र का पाण्डवों को हृदय से लगाना पढ़िए महाभारत !! 📝📝 {Bolo Ji Radhey Radhey} महाभारत: स्त्री पर्व द्वादश अध्याय: श्लोक 1-17 :- श्री कृष्ण का धृतराष्ट्र को फटकार कर उनका क्रोध शान्त करना और धृतराष्ट्र का पाण्डवों को हृदय से लगाना. 📙 वैशम्पायन उवाच वैशम्पायन जी कहते हैं -राजन्! तदनन्तर सेवक-गण शौच-सम्बन्धी कार्य सम्पन्न कराने के लिय राजा धृतराष्ट्र-की सेवा में उपस्थित हुए। जब वे शौच कृत्य पूर्ण कर चुके, तब भगवान मधुसुदन ने फिर उनसे कहा-राजन! आपने वेदों और नाना प्रकार के शास्त्रों का अध्ययन किया है। सभी पुराणों और केवल राजधर्मों का भी श्रवण किया है। 📙 ऐसे विद्वान, परम बुद्धिमान् और बलाबल का निर्णय करने में समर्थ होकर भी अपने ही अपराध से होने वाले इस विनाश को देखकर आप ऐसा क्रोध क्यों कर रहे हैं ? भरतनन्दन! मैंने तो उसी समय आपसे यह बात कह दी थी, भीष्म, द्रोणाचार्य, विदुर और संजय ने भी आपको समझाया था। राजन्! परंतु आपने किसी की बात नहीं मानी। 📙 कुरुनन्दन! हम लोगों ने आपको बहुत रोका; परंतु आपने बल और शौर्य में पाण्डवोंको बढा-चढ़ा जानकर भी हमारा कहना नहीं माना। जिसकी बुद्धि स्थिर है, ऐसा जो राजा स्वयं दोषों को देखता और देश-काल के विभाग को समझता है, वह परम कल्याण का भागी होता है। 📙 जो हित की बात बताने पर भी हिता हित की बातको नहीं समझ पाता, वह अन्याय का आश्रय ले बड़ी भारी विपत्तिbमें पड़कर शोक करता है। भरत नन्दन! आप अपनी ओर तो देखिये। आपका बर्ताव सदा ही न्याय के विपरीत रहा है। राजन्! आप अपने मन को वश में न करके सदा दुर्योधन के अधीन रहे हैं। अपने ही अपराध से विपत्ती में पड़कर आप भीमसेन को क्यों मार डालना चाहते हैं? 📙 इसलिये क्रोधको रोकिये और अपने दुष्कर्मोंको याद कीजिये। जिस नीच दुर्योधन ने मनमें जलन रखनेके कारण पात्र्चाल राजकुमारी कृष्णाको भरी सभामें बुलाकर अपमानित किया, उसे वैरका बदला लेनेकी इच्छासे भीमसेनने मार डाला। आप अपने और दुरात्मा पुत्र दुर्योधनके उस अत्याचारपर तो दृष्टि डालिये, जब कि बिना किसी अपराधके ही आपने पाण्डवों का परित्याग कर दिया था। 📙 वैशम्पायन उवाच वैशम्पाचनजी कहते हैं – नरेश्वर! जब इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने सब सच्ची-सच्ची बातें कह डालीं, तब पृथ्वी पति धृतराष्ट्र ने देवकी नन्दन श्रीकृष्ण से कहा- महाबाहु! माधव! आप जैसा कह रहे हैं, ठीक ऐसी ही बात है; परतु पुत्र का स्नेह प्रबल होता है, जिसने मुझे धैर्य से विचलित कर दिया था। 📙 श्रीकृष्ण! सौभग्य की बात है कि आपसे सुरक्षित होकर बलवान् सत्य पराक्रमी पुरुष सिंह भीमसेन मेरी दोनों भुजाओं- के बीच में नही आये। माधव! अब इस समय मैं शान्त हूँ। मेरा क्रोध उतर गया है, और चिन्ता भी दूर हो गयी है अत: मैं मध्यम पाण्डव वीर अर्जुन को देखना चाहता हूँ। समस्त राजाओं तथा अपने पुत्रों के मारे जाने पर अब मेरा प्रेम और हित चिन्तन पाण्डु के इन पुत्रों पर ही आश्रित है। 📙 तदनन्तर रोते हुए धृतराष्ट्र ने सुन्दर शरीर वाले भीमसेन, अर्जुन तथा माद्री के दोनों पुत्र नरवीर नकुल-सहदेव को अपने अगों से लगाया और उन्हें सान्तवना देकर कहा – तुम्हारा कल्याण हो। 📙 इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्तर्गत जल प्रदानिक पर्व में धृतराष्ट्र का क्रोध छोड़कर पाण्डवों को हृदयसे लगाना नामक तेरहवॉं अध्याय पूरा हुआ। N S Yadav .... ©N S Yadav GoldMine #gururavidas श्री कृष्ण का धृतराष्ट्र को फटकार कर उनका क्रोध शान्त करना और धृतराष्ट्र का पाण्डवों को हृदय से लगाना पढ़िए महाभारत !! 📝📝
#gururavidas श्री कृष्ण का धृतराष्ट्र को फटकार कर उनका क्रोध शान्त करना और धृतराष्ट्र का पाण्डवों को हृदय से लगाना पढ़िए महाभारत !! 📝📝
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White {Bolo Ji Radhey Radhey} नियुक्त किये हुए न्यायाधिकारी पुरुष अपराधियों के अपराध की मात्रा को भली भाँति जानकर जो दण्डनीय हों, उन्हें ही उचित दण्ड दें पढ़िए महाभारत !! 🌷🌷 महाभारत: आश्रमवासिका पर्व पंचम अध्याय: श्लोक 18-32 📔 भारत। जिन मनुष्यों के कुल और शील अच्छी तरह ज्ञात हों, उन्हीं से तुम्हें काम लेना चाहिये। भोजन आदि के अवसरों पर सदा तुम्हें आत्मरक्षा पर ध्यान देना चाहिये। आहार विहार के समय तथा माला पहनने, शय्या पर सोने और आसनों पर बैठने के समय भी तुम्हें सावधानी के साथ अपनी रक्षा करनी चाहिये। युधिष्ठिर। कुलीन, शीलवान्, विद्वान, विश्वासपात्र एवं वृद्ध पुरुषों की अध्यक्षता में रखकर तुम्हें अन्तःपुर की स्त्रियों की रक्षा का सुन्दर प्रबन्ध करना चाहिये। राजन्। तुम उन्हीं ब्राह्मणों को अपने मन्त्री बनाओ, जो विद्या में प्रवीण, विनयशील, कुलीन, धर्म और अर्थ में कुशल तथा सरल स्वभाव वाले हों। उन्हीं के साथ तुम गूढ़ विषय पर विचार करो, किंतु अधिक लोगों को साथ लेकर देर तक मन्त्रणा नहीं करनी चाहिये। सम्पूर्ण मन्त्रियों को अथवा उनमें से दो एक को किसी के बहाने चारों ओर से घिरे हुए बंद कमरे में या खुले मैदान में ले जाकर उनके साथ किसी गूढ़ विषय पर विचार करना। जहाँ अधिक घास फूस या झाड़ झंखाड़ न हो, ऐसे जंगल में भी गुप्त मन्त्रणा की जा सकती है, परंतु रात्रि के समय इन स्थानों में किसी तरह गुप्त सलाह नहीं करनी चाहिये। 📔 मनुष्यों का अनुसरण करने वाले जो वानर और पक्षी आदि हैं, उन सबको तथा मूर्ख एवं पंगु मनुष्यों को भी मन्त्रणा गृह में नहीं आने देना चाहिये। गुप्त मन्त्रणा के दूसरों पर प्रकट हो जाने से राजाओं को जो संकट प्राप्त होते हैं, उनका किसी तरह समाधान नहीं किया जा सकता - ऐसा मेरा विश्वास है। शत्रुदमन नरेश। गुप्त मन्त्रणा फूट जाने पर जो दोष पैदा होते हैं और न फूटने से जो लाभ होते हैं, उनको तुम मन्त्रिमण्डल के समक्ष बारंबार बतलाते रहना। राजन्। कुरूश्रेष्ठ युधिष्ठिर। नगर औश्र जनपद के लोगों का हृदय तुम्हारे प्रति शुद्ध है या अशुद्ध, इस बात का तुम्हें जैसे भी ज्ञान प्राप्त हो सके, वैसा उपाय करना। नरेश्वर। न्याय करने के काम पर तुम सदा ऐसे ही पुरुषों को नियुक्त करना, जो विश्वासपात्र, संतोषी और हितैषी हों तथा गुप्तचरों के द्वारा सदा उनके कार्यों पर दृष्टि रखना। भरतनन्दन युधिष्ठिर। तुम्हें ऐसा विधान बनाना चाहिये, जिससे तुम्हारे नियुक्त किये हुए न्यायाधिकारी पुरुष अपराधियों के अपराध की मात्रा को भली भाँति जानकर जो दण्डनीय हों, उन्हें ही उचित दण्ड दें। 📔 जो दूसरों से घूस लेने की रुचि रखते हों, परायी स्त्रियों से जिनका सम्पर्क हो, जो विशषतः कठोर दण्ड देने के पक्षपाती हों, झूठा फैसला देते हों, जो कटुवादी, लोभी, दूसरों का धन हड़पने वाले, दुस्साहसी, सभाभवन और उद्यान आदि को नष्ट करने वाले तथा सभी वर्ण के लोगों को कलंकित करने वाले हों, उन न्यायाधिकारियों को देश काल का ध्यान रखते हुए सुवर्ण दण्ड अथवा प्राण दण्ड के द्वारा दण्डित करना चाहिये। प्रातःकाल उठकर (नित्य नियम से निवृत्त होने के बाद) पहले तुम्हें उन लोगों से मिलना चाहिये, जो तुम्हारे खर्च बर्च के काम पर नियुक्त हों। उसके बाद आभूषण पहनने या भोजन करने के काम पर ध्यान देना चाहिये। जय श्री राधे कृष्ण जी।। ©N S Yadav GoldMine #SAD {Bolo Ji Radhey Radhey} नियुक्त किये हुए न्यायाधिकारी पुरुष अपराधियों के अपराध की मात्रा को भली भाँति जानकर जो दण्डनीय हों, उन्हें ही उ
#SAD {Bolo Ji Radhey Radhey} नियुक्त किये हुए न्यायाधिकारी पुरुष अपराधियों के अपराध की मात्रा को भली भाँति जानकर जो दण्डनीय हों, उन्हें ही उ
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पाण्डवों को शाप देने के लिये उद्यत इुई गान्धारी को व्यासजी का समझाना पढ़िए महाभारत !! 📒📒 {Bolo Ji Radhey Radhey} महाभारत: स्त्री पर्व चतुर्दश अध्याय: श्लोक 1-21 पाण्डवों को शाप देने के लिये उद्यत इुई गान्धारी को व्यासजी का समझाना :- 📔 वैशम्पायन उवाच वैशम्पायन जी कहते हैं – राजन् तदनन्तर धृतराष्ट्र की आज्ञा लेकर वे कुरुवंशी पांडव सभी भाई भगवान् श्रीकृष्ण के साथ गान्धारी के पास गये। पुत्र शोक से पीडित हुई गान्धारी को जब यह मालूम हुआ कि युधिष्ठिर अपने शत्रुओं का संहार करके मेरे पास आये हैं, तब उनकी सती-साध्वी देवी ने उन्हें शाप देने की इच्छा की। 📔 पाण्डवों के प्रति गान्धारी के मन में पापा पूर्ण संकल्प है, इस बात को सत्यवतीनन्दन महर्षि व्यास पहले ही जान गये थे। उनके उस अभिप्राय को जानकर वे मनके समान वेगशाली महर्षि गड्गाजी के पवित्र एवं सुगन्धित जल से आचमन करके शीघ्र ही उस स्थान पर आ पहुँचे। वे दिव्य दृष्टि से तथा अपने मन को समस्त प्राणियों के साथ एकाग्र करके उनके आन्तरिक भाव को समझ लेते थे। 📔 अत: हितकी बात बताने वाले वे महातपस्वी व्यास समय-समय पर अपनी पुत्रवधू के पास जा पहुँचे और शाप का अवसर उपस्थित करते हुए इस प्रकार बोले- गान्धरराजकुमारी ! शान्त हो जाओ। तुम्हें पाण्डुपुत्र युघिष्ठिर पर क्रोध नहीं करना चाहिये। अभी-अभी जो बात मुँह से निकालना चाहती हो, उसे रोक लो और मेरी यह बात सुनो। 📔 गत अठारह दिनों में विजय की अभिलाषा रखने वाला तुम्हारा पुत्र प्रतिदिन तुमसे जाकर कहता था कि मॉं ! मैं शत्रुओं के साथ युद्ध करने जा रहा हूँ। तुम मेरे कल्याण के लिये आशीर्वाद दो। इस प्रकार जब विजयाभिलाषी दुर्योधन समय-समय पर तुमसे प्रार्थना करता था, तब तुम सदा यही उत्तर देती थीं कि जहॉं धर्म है, वहीं विजय है। 📔 गान्धारी! तुमने बातचीत के प्रसग में भी पहले कभी झूठ कहा हो, ऐसा मुझे स्मरण नहीं है, तथा तुम सदा प्राणियों के हित में तत्पर रहती आयी हो। राजाओं के इस घोर संग्राम से पार होकर पाण्डवों ने जो युद्ध में विजय पायी है, इससे नि:संदेह यह बात सिद्ध हो गयी कि धर्म का बल सबसे अधिक है। धर्मज्ञे ! तुम तो पहले बड़ी क्षमाशील थी। 📔 अब क्यों नहीं क्षमा करती हो ? अधर्म छोड़ो, क्योंकि जहॉं धर्म है, वहीं विजय है। मनस्विनी गान्धारी ! अपने धर्म तथा की हुई बातका स्मरण करके क्रोधको रोको। सत्यवादिनि ! अब फिर तुम्हारा ऐसा बर्ताव नहीं होना चाहिये। गान्धार्युवाच गान्धारी बोली- भगवन् ! मैं पाण्डवों के प्रति कोई दुर्भाव नहीं रखती और न इनका विनाश ही चाहती हूँ परंतु क्या करूँ ? 📔 पुत्रों के शोक से मेरा मन हठात् व्याकुल-सा हो जाता है। कुन्ती के ये बेटे जिस प्रकार कुन्ती के द्वारा रक्षणीय हैं, उसी प्रकार मुझे भी इनकी रक्षा करनी चाहिये। जैसे आप इनकी रक्षा चाहते हैं, उसी प्रकार महाराज धृतराष्ट्र का भी कर्तव्य है कि इनकी रक्षा करें। कुरु कुल का यह संहार तो दुर्योधन, मेरे भाई शकुनि, कर्ण तथा दु:शासन के अपराध से ही हुआ है। 📔 इसमें न तो अर्जुन का अपराध है और न कुन्तीपुत्र भीमसेन का। नकुल-सहदेव और युघिष्ठिर को भी कभी इसके लिये दोष नहीं दिया जा सकता। कौरव आपस में ही जूझकर मारकाट मचाते हुए अपने दूसरे साथियों के साथ मारे गये हैं; अत: इसमें मुझे अप्रिय लगने वाली कोई बात नहीं है। परंतु महामना भीमसेन ने गदायुद्ध के लिये दुर्योधन को बुलाकर श्रीकृष्ण के देखते-देखते उसके प्रति जो बर्ताव किया है। 📔 वह मुझे अच्छा नहीं लगा। वह रणभूमि में अनेक प्रकार-के पैंतरे दिखाता हुआ विचर रहा था; अत: शिक्षा में उसे अपनेबसे अधिक जान भीम ने जो उसकी नाभि से नीचे प्रहार किया, इनके इसी बर्ताव ने मेरे क्रोध को बढ़ा दिया है। धर्मज्ञ महात्माओं ने गदायुद्ध के लिये जिस धर्म का प्रतिपादन किया है, उसे शूरवीर योद्धा रणभूमि में किसी तरह अपने प्राण बचाने के लिये कैसे त्याग सकते हैं ? एन एस यादव, यदुवंशी।। 📔 इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्री पर्व के अन्तर्गत जल प्रदानिक पर्व में गान्धारी की सान्तवना विषयक चौदहवॉं अध्याय पूरा हुआ। ©N S Yadav GoldMine #JallianwalaBagh पाण्डवों को शाप देने के लिये उद्यत इुई गान्धारी को व्यासजी का समझाना पढ़िए महाभारत !! 📒📒 {Bolo Ji Radhey Radhey} महाभारत
#JallianwalaBagh पाण्डवों को शाप देने के लिये उद्यत इुई गान्धारी को व्यासजी का समझाना पढ़िए महाभारत !! 📒📒 {Bolo Ji Radhey Radhey} महाभारत
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पाण्डवों को शाप देने के लिये उद्यत इुई गान्धारी को व्यासजी का समझाना पढ़िए महाभारत !! 🌷🌷 {Bolo Ji Radhey Radhey} महाभारत: स्त्री पर्व चतुर्दश अध्याय: श्लोक 1-21 {Bolo Ji Radhey Radhey} पाण्डवों को शाप देने के लिये उद्यत इुई गान्धारी को व्यासजी का समझाना :- 🙏 वैशम्पायन उवाच वैशम्पायनजी कहते हैं – राजन् तदनन्तर धृतराष्ट्र की आज्ञा लेकर वे कुरुवंशी पांडव सभी भाई भगवान् श्रीकृष्ण के साथ गान्धारी के पास गये। पुत्र शोक से पीडित हुई गान्धारी को जब यह मालूम हुआ कि युधिष्ठिर अपने शत्रुओं का संहार करके मेरे पास आये हैं, तब उनकी सती-साध्वी देवीने उन्हें शाप देने की इच्छा की। 🙏 पाण्डवों के प्रति गान्धारी के मन में पापापूर्ण संकल्प है, इस बात को सत्यवती नन्दन महर्षि व्यास पहले ही जान गये थे। उनके उस अभिप्राय को जानकर वे मनके समान वेगशाली महर्षि गड्गाजी के पवित्र एवं सुगन्धित जल से आचमन करके शीघ्र ही उस स्थान पर आ पहुँचे। वे दिव्य दृष्टि से तथा अपने मनको समस्त प्राणियों के साथ एकाग्र करके उनके आन्तरिक भाव को समझ लेते थे। 🙏 अत: हित की बात बताने वाले वे महातपस्वी व्यास समय-समय पर अपनी पुत्रवधू के पास जा पहुँचे और शाप का अवसर उपस्थित करते हुए इस प्रकार बोले- गान्धर राजकुमारी ! शान्त हो जाओ। तुम्हें पाण्डुपुत्र युघिष्ठिर पर क्रोध नहीं करना चाहिये। अभी-अभी जो बात मुँह से निकालना चाहती हो, उसे रोक लो और मेरी यह बात सुनो। 🙏 गत अठारह दिनों में विजय की अभिलाषा रखनेवाला तुम्हारा पुत्र प्रतिदिन तुमसे जाकर कहता था कि मॉं ! मैं शत्रुओं के साथ युद्ध करने जा रहा हूँ। तुम मेरे कल्याण के लिये आशीर्वाद दो। इस प्रकार जब विजयाभिलाषी दुर्योधन समय-समय पर तुमसे प्रार्थना करता था, तब तुम सदा यही उत्तर देती थीं कि जहॉं धर्म है, वहीं विजय है। 🙏 गान्धारी !तुमने बातचीत के प्रसडग में भी पहले कभी झूठ कहा हो, ऐसा मुझे स्मरण नहीं है, तथा तुम सदा प्राणियों के हित में तत्पर रहती आयी हो। राजाओं के इस घोर संग्रामसे पार होकर पाण्डवों ने जो युद्ध में विजय पायी है, इससे नि:संदेह यह बात सिद्ध हो गयी कि धर्म का बल सबसे अधिक है। धर्मज्ञे ! तुम तो पहले बड़ी क्षमाशील थी। 🙏 अब क्यों नहीं क्षमा करती हो ? अधर्म छोड़ो, क्योंकि जहॉं धर्म है, वहीं विजय है।मनस्विनी गान्धारी ! अपने धर्म तथा की हुई बात का स्मरण करके क्रोध को रोको। सत्यवादिनि ! अब फिर तुम्हारा ऐसा बर्ताव नहीं होना चाहिये। गान्धार्युवाच गान्धारी बोली- भगवन् ! मैं पाण्डवों के प्रति कोई दुर्भाव नहीं रखती और न इनका विनाश ही चाहती हूँ; परंतु क्या करूँ ? 🙏 पुत्रों के शोक से मेरा मन हठात् व्याकुल-सा हो जाता है। कुन्ती के ये बेटे जिस प्रकार द्वारा रक्षणीय हैं, उसी प्रकार मुझे भी इनकी रक्षा करनी चाहिये। जैसे आप इनकी रक्षा चाहते हैं, उसी प्रकार महाराज धृतराष्ट्र का भी कर्तव्य है कि इनकी रक्षा करें। कुरुकुल का कुन्तीके यह संहार तो दुर्योधन, मेरे भाई शकुनि, कर्ण तथा दु:शासन के अपराध से ही हुआ है। 🙏 इसमें न तो अर्जुन का अपराध है, और न कुन्तीपुत्र भीमसेन का। नकुल-सहदेव और युघिष्ठिर को भी कभी इसके लिये दोष नहीं दिया जा सकता। कौरव आपस में ही जूझकर मारकाट मचाते हुए अपने दूसरे साथियों के साथ मारे गये हैं; अत: इसमें मुझे अप्रिय लगने वाली कोई बात नहीं है। 🙏 परंतु महामना भीमसेन ने गदायुद्ध के लिये दुर्योधन को बुलाकर श्रीकृष्ण के देखते-देखते उसके प्रति जो बर्ताव किया है, वह मुझे अच्छा नहीं लगा। वह रणभूमिमें अनेक प्रकार-के पैंतरे दिखाता हुआ विचर रहा था; अत: शिक्षा में उसे अपनेसे अधिक जान भीमने जो उसकी नाभि से नीचे प्रहार किया, इनके इसी बर्ताव ने मेरे क्रोध को बढ़ा दिया है। 🙏 धर्मज्ञ महात्माओं ने गदायुद्ध के लिये जिस धर्म का प्रतिपादन किया है, उसे शूरवीर योद्धा रणभूमि में किसी तरह अपने प्राण बचाने के लिये कैसे त्याग सकते हैं ? 🙏 इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्री पर्व के अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्वमें गान्धारीकी सान्तवनाविषयक चौदहवॉं अध्याय पूरा हुआ। Rao Sahab N S Yadav... ©N S Yadav GoldMine #Love पाण्डवों को शाप देने के लिये उद्यत इुई गान्धारी को व्यासजी का समझाना पढ़िए महाभारत !! 🌷🌷 {Bolo Ji Radhey Radhey} महाभारत: स्त्री प
Love पाण्डवों को शाप देने के लिये उद्यत इुई गान्धारी को व्यासजी का समझाना पढ़िए महाभारत !! 🌷🌷 {Bolo Ji Radhey Radhey} महाभारत: स्त्री प
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White महाभारत: आश्रमवासिक पर्व एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-20 {Bolo Ji Radhey Radhey} 📒 जनमेजय ने पूछा - ब्राह्मण। जब अपनी धर्म पत्नी गान्धारी और बहू कुन्ती के साथ नृपश्रेष्ठ पृथ्वी पति धृतराष्ट्र वनवास के लिये चले गये, विदुर जी सिद्धि को प्राप्त होकर धर्मराज युधिष्ठिर के शरीर में प्रविष्ट हो गये और समस्त पाण्डव आश्रम मण्डल में निवास करने लगे, उस समय परम तेजस्वी व्यास जी ने जो यह कहा था कि मैं आश्चर्यजनक घटना प्रकट करूँगा वह किस प्रकार हुई? यह मुझे बतायें। अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले कुरूवंशी राजा युधिष्ठिर कितने दिनों तक सब लोगों के साथ वन में रहे थे? प्रभो। निष्पाप मुने। सैनिकों और अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ वे महात्मा पाण्डव क्या आहार करके वहाँ निवास करते थे? वैशम्पायन जी ने कहा । कुरूराज धर्तराष्ट्र पाण्डवों को नाना प्रकार के अन्न-पान ग्रहण करने की आज्ञा दे दी थी, अतः वे वहाँ विश्राम पाकर सभी तरह के उत्तम भोजन करते थे। 📒 इसी बीच में जैसाकि मैनें तुम्हें बताया है, वहाँ व्यास जी का आगमन हुआ। राजन्। राजा धृतराष्ट्रके समीप व्यास जी के पीछे उन सब लोगों में जब उपयुक्त बातें होती रहीं, उसी समय वहाँ दूसरे-दूसरे मुनि भी आये। भारत। उन में नारद, पर्वत, महातपस्वी देवल, विश्वावसु, तुम्बरू तथा चित्रसेन भी थे। धृतराष्ट्र की आज्ञा से महातपस्वी कुरूराज युधिष्ठिर ने उन सब की भी यथोचित पूजा की। युधिष्ठिर से पूजा ग्रहण करके वे सब के सब मोरपंख के बने हुए पवित्र एवं श्रेष्ठ आसनों पर विराजमान हुए। कुरूश्रेष्ठ। उन सब के बैठ जाने पर पाण्डवों से घिरे हुए परम बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र बैठे। गान्धारी, कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा तथा दूसरी स्त्रियाँ अन्य स्त्रियों के साथ आस -पास ही एक साथ बैठ गयीं। नरेश्वर। उस समय उन लोगों में धर्म से सम्बन्ध रखने वाली दिव्य कथाएँ होने लगीं। प्राचीन ऋषियों तथा देवताओं और असुरों से सम्बन्ध रखने वाली चर्चाएँ छिड़ गयीं। 📒 बातचीत के अन्त में सम्पूर्ण वेदवेत्ताओं और वक्ताओं में श्रेष्ठ महातेजस्वी महर्षि व्यास जी ने प्रसन्न होकर प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्र से पुन: वही बात कही। राजेन्द्र। तुम्हारे हृदय में जो कहने की इच्छा हो रही है, उसे मैं जानता हूँ। तुम निरन्तर अपने मरे हुए पुत्रों के शोक से जलते रहते हो। महाराजा। गान्धारी, कुन्ती और द्रौपदी के हृदय में भी जो दुःख सदा बना रहता है, वह भी मुझे ज्ञात है। श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा अपने पुत्र अभिमन्यु के मारे जाने का जो दुःसह दुःख हृदय में धारण करती है, वह भी मुझे अज्ञात नहीं है। कौरवनन्दन। नरेश्वर। वास्तव में तुम सब लोगों का यह समागम सुनकर तुम्हारे मानसिक संदेहों का निवारण करने के लिये मैं यहाँ आया हूँ। ये देवता, गन्धर्व और महर्षि सब लोग आज मेरी चिरसंचित तपस्या का प्रभाव देखें।l ©N S Yadav GoldMine #love_shayari महाभारत: आश्रमवासिक पर्व एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-20 {Bolo Ji Radhey Radhey} 📒 जनमेजय ने पूछा - ब्राह्मण। जब अपनी धर्म पत्
#love_shayari महाभारत: आश्रमवासिक पर्व एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-20 {Bolo Ji Radhey Radhey} 📒 जनमेजय ने पूछा - ब्राह्मण। जब अपनी धर्म पत्
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श्रीकृष्ण द्वारा राजा परीक्षित का नामकरण तथा पाण्डवों का हस्तिनापुर के समीप आगमन पढ़िए महाभारत !! 👑👑 {Bolo Ji Radhey Radhey} महाभारत: :- आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व) सप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-21 श्रीकृष्ण द्वारा राजा परीक्षित का नामकरण तथा पाण्डवों का हस्तिनापुर के समीप आगमन 🎇 वैशम्पायनजी कहते है- राजन! भगवान श्रीकृष्ण ने जब ब्रह्मास्त्र को शान्त कर दिया, उस समय वह सूतिकागृह तुम्हारे पिता के तेज से देदीप्यमान होने लगा। फिर तो बालकों का विनाश करने वाले समस्त राक्षस उस घर को छोड़कर भाग गये। इसी समय आकाशवाणी हुई- केशव! तुम्हें साधुवाद! तुमने बहुत अच्छा कार्य किया। साथ ही वह प्रज्वलित ब्रह्मास्त्र ब्रह्मलोक को चला गया। 🎇 नरेश्वर! इस तरह तुम्हारे पिता को पुनर्जीवन प्राप्त हुआ। राजन्! उत्तरा का वह बालक अपने उत्साह और बल के अनुसार हाथ-पैर हिलाने लगा, यह देख भरतवंश की उन सभी स्त्रियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन कराया। 🎇 फिर वे सब आनन्दमग्न होकर श्रीकृष्ण के गुण गाने लगीं। जैसे नदी के पार जाने वाले मनुष्यों को नाव पाकर बड़ी खुशी होती है, उसी प्रकार भरतवंशी वीरों की वे स्त्रियां-कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा एवं नर वीरों की स्त्रियां उस बालक के जीवित होने से मन–ही–मन बहुत प्रसन्न हुईं। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर मल्ल, नट,ज्योतिषी, सुख का समाचार पूछने वाले सेवक तथा सूतों और मागधों के समुदाय कुरुवंश की स्तुति और आशीर्वाद के साथ भगवान श्रीकृष्ण का गुणगान करने लगे। 🎇 भरतनन्दन! फिर प्रसन्न हुई उत्तरा यथासमय उठकर पुत्र को गोद में लिये हुए यदुनन्दन श्रीकृष्ण के समीप आयी और उन्हें प्रणाम किया। भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर उस बालक को बहुत से रत्न उपहार में दिये। फिर अन्य यदुवंशियों ने भी नाना प्रकार की वस्तुएं भेंट की। 🎇 महाराज! इसके बाद सत्यप्रतिज्ञ भगवान श्रीकृष्ण ने तुम्हारे पिता का इस प्रकार नामकरण किया। कुरुकुल के परिक्षीण हो जाने पर यह अभिमन्यु का बालक उत्पन्न हुआ है। इसलिये इसका नाम परीक्षित होना चाहिये।ऐसा भगवान ने कहा। नरेश्वर! इस प्रकार नामकरण हो जाने के बाद तुम्हारे पिता परीक्षित कालक्रम से बड़े होने लगे। भारत! वे सब लोगों के मन को आनन्दमग्न किये रहते थे। 🎇 वीर भरतनन्दन! जब तुम्हारे पिता की अवस्था एक महीने की हो गयी, उस समय पाण्डव लोग बहुत सी रत्नराशि लेकर हस्तिनापुर को लौटे। वृष्णिवंश के प्रमुख वीरों ने जब सुना कि पाण्डव लोग नगर के समीप आ गये हैं, तब वे उनकी अगवानी के लिये बाहर निकले। पुरवासी मनुष्यों ने फूलों की मालाओं, वन्दनवारों, भांति–भांति की ध्वजाओं तथा विचित्र–विचित्र पताकाओं से हस्तिनापुर को सजाया था। 🎇 नरेश्वर! नागरिकों ने अपने–अपने घरों की सजावट की थी। विदुरजी ने पाण्डवों का प्रिय करने की इच्छा से देवमन्दिरों में विविध प्रकार से पूजा करने की आज्ञा दी। हस्तिनापुर के सभी राजमार्ग फूलों से अलंकृत किये गये थे। ©N S Yadav GoldMine #lonely श्रीकृष्ण द्वारा राजा परीक्षित का नामकरण तथा पाण्डवों का हस्तिनापुर के समीप आगमन पढ़िए महाभारत !! 👑👑 {Bolo Ji Radhey Radhey} महाभा
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कुरु वन्स की उतपत्ति:- पुराणो के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध, और बुध से इलानन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ। पुरूरवा से आयु, आयु से राजा नहुष, और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरू हुए। पूरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए। कुरु के वंश में शान्तनु का जन्म हुआ। शान्तनु से गंगानन्दन भीष्म उत्पन्न हुए। उनके दो छोटे भाई और थे – चित्रांगद और विचित्रवीर्य। ये शान्तनु से सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। शान्तनु के स्वर्गलोक चले जाने पर भीष्म ने अविवाहित रह कर अपने भाई विचित्रवीर्य के राज्य का पालन किया। भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक हैं। ये महाराजा शांतनु के पुत्र थे। अपने पिता को दिये गये वचन के कारण इन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। इन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था। एक बार हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट खेलने वन में गये। जिस वन में वे शिकार के लिये गये थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। कण्व ऋषि के दर्शन करने के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुँच गये। पुकार लगाने पर एक अति लावण्यमयी कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, हे राजन् महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है। उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, बालिके आप कौन हैं? बालिका ने कहा, मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ। उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं? उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, वास्तव में मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र हैं। मेरी माता ने मेरे जन्म होते ही मुझे वन में छोड़ दिया था जहाँ पर शकुन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की। इसी लिये मेरा नाम शकुन्तला पड़ा। उसके बाद कण्व ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी और वे मुझे अपने आश्रम में ले आये। उन्होंने ही मेरा भरन-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला – ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार कण्व ऋषि मेरे पिता हुये। शकुन्तला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा, शकुन्तले तुम क्षत्रिय कन्या हो। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ। शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। दोनों नें गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ काल महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ विहार करते हुये वन में ही व्यतीत किया। फिर एक दिन वे शकुन्तला से बोले, प्रियतमे मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिये हस्तिनापुर प्रस्थान करना होगा। महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहाँ से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा। इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी और हस्तिनापुर चले गये। एक दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। महाराज दुष्यंत के विरह में लीन होने के कारण शकुन्तला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ और उसने दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, बालिके मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा। दुर्वासा ऋषि के शाप को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी। महाराज दुष्यंत से विवाह से शकुन्तला गर्भवती हो गई थी। कुछ काल पश्चात् कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुन्तला ने उन्हें महाराज दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह के विषय में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा, पुत्री विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। अब तेरे पति का घर ही तेरा घर है। इतना कह कर महर्षि ने शकुन्तला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। मार्ग में एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली निगल गई। महाराज दुष्यंत के पास पहुँच कर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुन्तला को उनके सामने खड़ी कर के कहा, महाराज शकुन्तला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें। महाराज तो दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण शकुन्तला को विस्मृत कर चुके थे। अतः उन्होंने शकुन्तला को स्वीकार नहीं किया और उस पर कुलटा होने का लाँछन लगाने लगे। शकुन्तला का अपमान होते ही आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी और सब के सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई। जिस मछली ने शकुन्तला की अँगूठी को निगल लिया था, एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फँसी। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया और वे अपने कृत्य पर पश्चाताप करने लगे। महाराज ने शकुन्तला को बहुत ढुँढवाया किन्तु उसका पता नहीं चला। कुछ दिनों के बाद देवराज इन्द्र के निमन्त्रण पाकर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिये महाराज दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती गये। संग्राम में विजय प्राप्त करने के पश्चात् जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिये वे वहाँ रुक गये। आश्रम में एक सुन्दर बालक एक भयंकर सिंह के साथ खेल रहा था। मेनका ने शकुन्तला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था तथा वह बालक शकुन्तला का ही पुत्र था। उस बालक को देख कर महाराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ पड़ी। वे उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो शकुन्तला की सखी चिल्ला उठी, हे भद्र पुरुष आप इस बालक को न छुयें अन्यथा उसकी भुजा में बँधा काला डोरा साँप बन कर आपको डस लेगा। यह सुन कर भी दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपने गोद में उठा लिया। अब सखी ने आश्चर्य से देखा कि बालक के भुजा में बँधा काला गंडा पृथ्वी पर गिर गया है। सखी को ज्ञात था कि बालक को जब कभी भी उसका पिता अपने गोद में लेगा वह काला डोरा पृथ्वी पर गिर जायेगा। सखी ने प्रसन्न हो कर समस्त वृतान्त शकुन्तला को सुनाया। शकुन्तला महाराज दुष्यंत के पास आई। महाराज ने शकुन्तला को पहचान लिया। उन्होंने अपने कृत्य के लिये शकुन्तला से क्षमा प्रार्थना किया और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे अपने पुत्र सहित अपने साथ हस्तिनापुर ले आये। महाराज दुष्यंत और शकुन्तला के उस पुत्र का नाम भरत था। बाद में वे भरत महान प्रतापी सम्राट बने और उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ। ©N S Yadav GoldMine कुरु वन्स की उतपत्ति:- पुराणो के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध, और बुध से इलानन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ। पुर
कुरु वन्स की उतपत्ति:- पुराणो के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध, और बुध से इलानन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ। पुर
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White रानीजी ! यदि मैं उस प्रतिज्ञा को पूर्ण न करता तो सदा के लिये क्षत्रिय-धर्म से गिर जाता पढ़िए महाभारत !! 📒📒 {Bolo Ji Radhey Radhey} महाभारत: स्त्री पर्व पत्र्चदश अध्याय: श्लोक 19-37 {Bolo Ji Radhey Radhey} 📙 रानीजी ! यदि मैं उस प्रतिज्ञा को पूर्ण न करता तो सदा के लिये क्षत्रिय-धर्म से गिर जाता, इसलिये मैंने यह काम किया था। माता गान्धारी ! आपको मुझमें दोष की आशड्bका नहीं करनी चाहिये। पहले जब हम लोगों ने काई अपराध नहीं किया था, उस समय हम पर अत्याचार करने वाले अपने पुत्रों-को तो आपने रोका नही; फिर इस समय आप क्यों मुझ पर दोषा रोपण करती है. 📙 गान्धार्युवाच गान्धारी बोलीं—बेटा ! तुम अपराजित वीर हो। तुमने इन बूढ़े महाराज के सौ पुत्रों को मारते समय किसी एक को भी, जिसने बहुत थोड़ा अपराध किया था, क्यों नहीं जीवित छोड़ दिया ? तात ! हम दोनों बूढ़े हुए। हमारा राज्य भी तुमने छीन लिया। ऐसी दशा में हमारी एक ही संतान को—हम दो अन्धों के लिये एक ही लाठी के सहारे को तुमने क्यों नहीं जीवित छोड़ दिया ? 📙 तात ! तुम मेरे सारे पुत्रों के लिये यमराज बन गये। यदि तुम धर्म का आचरण करते और मेरा एक पुत्र भी शेष रह जाता तो मुझे इतना दु:ख नहीं होता। वैशम्पायन उवाच वैशम्पायन जी कहते हैं-राजन्! भीमसेन से ऐसा कहकर अपने पुत्रों और पौत्रों और पौत्रों के वध से पीडित हुई गान्धारी ने कुपित होकर पूछा—कहॉ है वह राज युधिष्ठिर। 📙 यह सुनकर महाराज युधिष्ठिर कॉंपते हुए हाथ जोड़े उनके सामने आये और बड़ी मीठी वाणी में बोले—देवि ! आपके पुत्रों का संहार करने वाला क्रूरकर्मा युधिष्ठिर मैं हूँ। पृथ्वी भर के राजाओं का नाश कराने में मैं ही हेतु हूँ, इसलिये शाप के योग्य हूँ। 📙 आप मुझे शाप दे दीजिये। मैं अपने सुह्रदों का द्रोही और अविवकी हूँ। वैसे-वैसे श्रेष्ठ सुह्रदों का वधकर के अब मुझे जीवन, राज्य अथवा धनसे कोई प्रयोजन नहीं है’। जब निकट आकर डरे हुए राजा युधिष्ठर ने, ऐसी बातें कहीं, तब गान्धारी देवी जोर-जोर से सॉंस खींचती हुई सिसकने लगीं। वे मुँह से कुछ बोल न सकीं। राजा युधिष्ठिर शरीर को झुकाकर गान्धारी के चरणों पर गिर जाना चाहते थे। 📙 इतने ही में धर्म को जानने वाली दूर-दर्शिनी देवी गान्धारी ने पट्टी के भीतर से ही राजा युधिष्ठिर के पैरों की अगुलियों के अग्रभाग देख लिये। इतने ही से राजा के नख काले पड़ गये। इसके पहले उनके नख बड़े ही सुन्दर और दर्शनीय थे। उनकी यह अवस्था देख अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण के पीछे जाकर छिप गये। 📙 भारत ! उन्हें इस प्रकार इधर-उधर छिपने की चेष्टा करते देख गान्धारी का क्रोध उतर गया और उन्होंने उन सबको स्नेहमयी माता के समान सान्त्वना दी। फिर उनकी आज्ञा ले चौड़ी छाती वाले सभी पाण्ड वन एक साथ वीर जननी माता कुन्ती के पास गये। कुन्ती देवी दीर्घकाल के बाद अपने पुत्रों को देखकर उनके कष्टों का स्मरण करके करुणाbमें डूब गयीं और आचल से मुँह ढककर ऑंसू बहाने लगीं। 📙 पुत्रों सहित ऑंसू बहाकर उन्होंने उनके शरीरों पर बारबार दृष्टिपात किया। वे सभी अस्त्र-शस्त्रों की चोट से घायल हो रहे थे। बारी-बारी से पुत्रों के शरीर पर बारंबार हाथ फेरती हुई कुन्ती दु:खसे आतुर हो उस द्रौपदी के लिय शोक करने लगी, जिसके सभी पुत्र मारे गये थे। इतने में ही उन्होंने देखा कि द्रौपदी पास ही पृथ्वी पर गिरकर रो रही है। 📙 द्रौपद्युवाच द्रौपदी बोली-आयें ! अभिमन्यु सहित वे आपके सभी पौत्र कहॉं चले गये ? वे दीर्घकाल के बाद आयी हुई आज आप तपस्विनी देवी को देखकर आपके निकट क्यों नहीं आ रहे हैं ? अपने पुत्रों से हीन होकर अब इस राज्य से हमें क्या कार्य है ? ©N S Yadav GoldMine #GoodMorning रानीजी ! यदि मैं उस प्रतिज्ञा को पूर्ण न करता तो सदा के लिये क्षत्रिय-धर्म से गिर जाता पढ़िए महाभारत !! 📒📒 {Bolo Ji Radhey Rad
#GoodMorning रानीजी ! यदि मैं उस प्रतिज्ञा को पूर्ण न करता तो सदा के लिये क्षत्रिय-धर्म से गिर जाता पढ़िए महाभारत !! 📒📒 {Bolo Ji Radhey Rad
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