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सम्राट अनुज "अमानुष"
इस शहर में मज़दूर जैसा दर बदर कोई नहीं, जिसने सब के घर बनाए उसका कोई घर नहीं... #अन्तर्द्वन्द्व
रजनीश "स्वच्छंद"
मैं लिखता हूँ।। बातें सबकी मैं लिखता हूँ, सच के सम्मुख मैं टिकता हूँ। कभी बंधा मैं पन्नों में, फिर सरेआम मैं बिकता हूँ। कभी विरल तो कभी सघन, भाव मैं सिंचित करता हूँ। हो दरबारी राजभवन में, ना मैं किंचित रहता हूँ। आदि अनन्त दुर्लभ भी कभी, कभी तुतलाता बालक हूँ। मां की ममता में लोट लोट, पीछे चलता एक शावक हूँ। मील का पत्थर बनूँ कभी, पथद्रष्टा मूक बधिर रहा। दवानल बन कभी उमड़ता, कभी मैं शीतल क्षीर रहा। पाप पुण्य के महासमर में, मैं दोनों को भाता हूँ। रावण बन हरता सीता भी, कभी मैं लक्ष्मण भ्राता हूँ। तुम जो पाठक बन जाओ, मैं खड़ा तटस्थ अनुयायी हूँ। गर मैं तुमको छू न सका, कागज़ पर छिड़का स्याही हूँ। लज्जा भी कहुँ न लज्जित हूँ, मैं रक्त हुआ न रंजित हूँ। हृदय भाव मे ढलता हूँ, कभी समुचित कभी खण्डित हूँ। वीर पढ़ें और धीर पढ़ें, कुछ प्रश्न उठा मैं चलता हूँ। और कभी बना पागल प्रेमी, प्रियतमा की बांहों में गलता हूँ। बस गिने चुने ही अक्षर हैं, भाव अप्रतिम मैं गढ़ता हूँ। हाथ पकड़ मैं कभी सहायक, बन अन्तर्द्वन्द्व कभी मैं लड़ता हूँ। ईश की भी गाथा मुझमे, दानव का भी सरोकार रहा। कभी हूँ बनता कुरुक्षेत्र, मानवता का त्योहार रहा। कभी कोई गुणगान करे, कभी मुझमे ऐब निकाले हैं। ले दर्पण देखो निज को, चित-जड़ित कई कई ताले हैं। चलो विवेक की बात कहुँ, पार्श्व गीत एक गाता हूँ। जब खड़ी मानवता दो राहे पे, बन इतिहास मैं आता हूँ। ©रजनीश "स्वछंद" मैं लिखता हूँ।। बातें सबकी मैं लिखता हूँ, सच के सम्मुख मैं टिकता हूँ। कभी बंधा मैं पन्नों में, फिर सरेआम मैं बिकता हूँ। कभी विरल तो कभी सघ
मैं लिखता हूँ।। बातें सबकी मैं लिखता हूँ, सच के सम्मुख मैं टिकता हूँ। कभी बंधा मैं पन्नों में, फिर सरेआम मैं बिकता हूँ। कभी विरल तो कभी सघ
read moreरजनीश "स्वच्छंद"
अस्तित्व बचाता लड़ता हूँ।। हो जीत नहीं, हो प्रीत नहीं, अस्तित्व बचाता लड़ता हूँ। एक जीवन ही मिला मगर, कई बार मैं जीता मरता हूँ। अन्तर्द्वन्द्वओं ने महासमर में, बन कर शत्रु ललकारा है। बिन लड़े शस्त्र तज दूँ कैसे, अन्तर्मन ने धिक्कारा है। है कवच नहीं, कुंडल भी नहीं, छद्म इंद्र कहो क्या मांगेगा। सखा हेतु एक धर्म निभाने, कर्ण ये फिर से जागेगा। भगवन भी जो बन शत्रु आये, अभय-दान नहीं मांग रहा। परिभाषित होता मनुज कर्म से, हर बाधा जो है लांघ रहा। कभी मैं बढ़ता, कभी मैं रुकता, रुक अन्तर्विवेचना करता हूँ। एक जीवन ही मिला मगर, कई बार मैं जीता मरता हूँ। बेर लिए कहाँ सबरी बैठी, केवट ने कब नाव उतारा था। अग्निपरीक्षा सीता थी देती, आ कब किसने उबारा था। मैं बाल्मीक मैं राम भी हूँ, मेरी ही अग्नि परीक्षा रही। लक्ष्मण रेखा भी मैंने लांघी, अनन्त मेरी ही इक्षा रही। निज को पढ़ना, निज को लिखना, निज में ही संसार समाहित था। भले बुरे में फर्क करूँ क्या, धमनी रक्त वही तो प्रवाहित था। कभी बैठ एकांतवास में, घाव मैं अपने भरता हूँ। एक जीवन ही मिला मगर, कई बार मैं जीता मरता हूँ। भीष्म कहो बन जाऊं कैसे, कैसे शर-शय्या पड़ा रहूँ। रहूँ मूक द्रष्टा बन कैसे, हो पाषाण मैं खड़ा रहूँ। मैं दुर्योधन जंघा नहीं न द्रोण-ग्रीवा, जो तोड़ा और उतारा जाउँ। अब रहा अभिमन्यु भी नहीं, फंस चक्रव्यूह जो मारा जाउँ। भुजा मेरी भुजबल भी मेरा, बन प्रचंड रण में उतरा। हुंकार लिए, प्रलय लिए, इस अखण्ड वन में उतरा। विक्रम भी मैं, बेताल भी मैं, प्रश्न स्वयं से करता हूँ। एक जीवन ही मिला मगर, कई बार मैं जीता मरता हूँ। ©रजनीश "स्वछंद" अस्तित्व बचाता लड़ता हूँ।। हो जीत नहीं, हो प्रीत नहीं, अस्तित्व बचाता लड़ता हूँ। एक जीवन ही मिला मगर, कई बार मैं जीता मरता हूँ। अन्तर्द्वन्द
अस्तित्व बचाता लड़ता हूँ।। हो जीत नहीं, हो प्रीत नहीं, अस्तित्व बचाता लड़ता हूँ। एक जीवन ही मिला मगर, कई बार मैं जीता मरता हूँ। अन्तर्द्वन्द
read moreDivyanshu Pathak
व्यक्ति के शरीर में पिछली सात पीढियों तक का अंश होता है जो उसके व्यक्तित्व में परिलक्षित होता है। व्यक्ति के मार्ग में ज्यों-ज्यों निमित्त आते हैं वे इन संस्कारों से जुड़ते जाते हैं। कुछ संस्कार पलते जाते हैं कुछ छूटते जाते हैं। उनकी छाप व्यक्ति के अवचेतन मन पर अंकित होती रहती है। फिर, समान प्रकृति का निमित्त आते ही पिछली स्मृति उसका व्यवहार याद करा देती है पिछले अनुभवों के आधार पर वह अगला व्यवहार करता चला जाता है। 💕👨🍧🍨🍧🍨💕🍫🍫🍫💕💕☕☕☕👨 :🍧🍨🍫☕👨💕 माता-पिता, मित्र-परिजन और समाज के बीच रहकर व्यक्ति का एक नया व्यक्तित्व तैयार हो जाता है। वह सदा इस बोझ से दबा रहता
💕👨🍧🍨🍧🍨💕🍫🍫🍫💕💕☕☕☕👨 :🍧🍨🍫☕👨💕 माता-पिता, मित्र-परिजन और समाज के बीच रहकर व्यक्ति का एक नया व्यक्तित्व तैयार हो जाता है। वह सदा इस बोझ से दबा रहता
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