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Adv Sony Khan
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शिवानन्द
#मिट्टी के #आशियाने थे। #लालटेन बीच लगते #पाठशाले थे। दादा दादी की #कथा_कहानी थे। #रेडियो और #साईकिल के दिवाने थे। #मेलो में #खुशियों के ठिकाने थे। #नफ़रत से अंजाने थे। वे #बचपन गजब सुहाने थे! 🕊️🕊️ #नदान_परिंदा 🕊️🕊️ #बचपन #लालटेन #मिट्टी_के_घर #मेले 🕊️🕊️ #नदान_परिंदा 🕊️🕊️ #yqdidi #yqquotes #नमस्ते_इंडिया
#बचपन #लालटेन #मिट्टी_के_घर #मेले 🕊️🕊️ #नदान_परिंदा 🕊️🕊️ #yqdidi #yqquotes #नमस्ते_इंडिया
read moreAnamika
दो पहियों की गाड़ी थी, सब कितने करीब थे.... चार पहियों की सवारी से, मिलने को भी तरस गए. #साथीछूटगए #साईकिल #याराना #yourquote #tulikagarg
#साथीछूटगए #साईकिल #याराना #yourquote #TulikaGarg
read moreAnamika
साईकिलों पर मिला करते थे कभी, सब अब अपनी मशरुफियत में मिलें...... उन गलियों में मिला करते थे कभी, शहर की अब उस भीड़ में मिलें...... वक़्त देते थे सब एक-दूसरे को कभी, वक़्त की कमी से ही अब कम मिलें..... यूं तो याद करते हैं सभी, सब को, जीवन की उलझनों में, न जाने कब मिलें.... #साईकिल #दोस्ती #tulikagarg
Mangal Singh
90 का #दूरदर्शन और हम : 1.सन्डे को सुबह-2 नहा-धो कर टीवी के सामने बैठ जाना 2."#रंगोली"में शुरू में पुराने फिर नए गानों का इंतज़ार करना 3."#जंगल-बुक"देखने के लिए जिन दोस्तों के पास टीवी नहीं था उनका घर पर आना 4."#चंद्रकांता"की कास्टिंग से ले कर अंत तक देखना 5.हर बार सस्पेंस बना कर छोड़ना चंद्रकांता में और हमारा अगले हफ्ते तक सोचना 6.शनिवार और रविवार की शाम को #फिल्मों का इंतजार करना 7.किसी नेता के मरने पर कोई #सीरियल ना आए तो उस नेता को और गालियाँ देना 8.सचिन के आउट होते ही टीवी बंद कर के खुद बैट-बॉल ले कर खेलने निकल जाना 9."#मूक-#बधिर"समाचार में टीवी एंकर के इशारों की नक़ल करना 10.कभी हवा से #ऐन्टेना घूम जाये तो छत पर जा कर ठीक करना बचपन वाला वो '#रविवार' अब नहीं आता, दोस्त पर अब वो प्यार नहीं आता। जब वो कहता था तो निकल पड़ते थे बिना #घडी देखे, अब घडी में वो समय वो वार नहीं आता। बचपन वाला वो '#रविवार' अब नहीं आता...।।। वो #साईकिल अब भी मुझे बहुत याद आती है, जिसपे मैं उसके पीछे बैठ कर खुश हो जाया करता था। अब कार में भी वो आराम नहीं आता...।।। #जीवन की राहों में कुछ ऐसी उलझी है गुथियाँ, उसके घर के सामने से गुजर कर भी मिलना नहीं हो पाता...।।। वो '#मोगली' वो '#अंकल Scrooz', '#ये जो है जिंदगी' '#सुरभि' '#रंगोली' और '#चित्रहार' अब नहीं आता...।।। #रामायण, #आलदिन#महाभारत#का वो चाव अब नहीं आता, बचपन वाला वो 'रविवार' अब नहीं आता...।।। वो #एक रुपये किराए की साईकिल लेके, दोस्तों के साथ गलियों में रेस लगाना! अब हर वार 'सोमवार' है काम, ऑफिस, बॉस, बीवी, बच्चे; बस ये जिंदगी है। दोस्त से दिल की बात का इज़हार नहीं हो पाता। बचपन वाला वो 'रविवार' अब नहीं आता...।।। बचपन वाला वो '#रविवार' अब नही आता...।।। 🙂🙏m&p #seaside
B.L Parihar
*हम उस जमाने के बच्चे थे* पांचवी तक घर से तख्ती लेकर स्कूल गए थे... स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी, कक्षा के तनाव में भाटा पेन्सिल खाकर ही हमनें तनाव मिटाया था। स्कूल में टाट-पट्टी की अनुपलब्धता में घर से खाद या बोरी का कट्टा बैठने के लिए बगल में दबा कर भी साथ ले जाते थे। कक्षा छः में पहली दफा हमने अंग्रेजी का कायदा पढ़ा और पहली बार एबीसीडी देखी। स्मॉल लेटर में बढ़िया एफ बनाना हमें बारहवीं तक भी न आया था। करसीव राइटिंग भी कॉलेज मे जाकर ही सीख पाए। उस जमाने के हम बच्चों की अपनी एक अलहदा दुनिया थी, कपड़े के थेले में किताब और कापियां जमाने का विन्यास हमारा अधिकतम रचनात्मक कौशल था। तख्ती पोतने की तन्मयता हमारी एक किस्म की साधना ही थी। हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते (नई काॅपी-किताबें मिलती) तब उन पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का स्थाई उत्सव था। सफेद शर्ट और खाकी पेंट में जब हम माध्यमिक कक्षा पहूँचे तो पहली दफा खुद के कुछ बड़े होने का अहसास तो हुआ लेकिन पेंट पहन कर हम शर्मा रहे थे, मन कर रहा था कि वापस निकर पहन लें। पांच छ: किलोमीटर दूर साईकिल से रोज़ सुबह कतार बना कर चलना और साईकिल की रेस लगाना हमारे जीवन की अधिकतम प्रतिस्पर्धा थी। हर तीसरे दिन पम्प को बड़ी युक्ति से दोनों टांगो के मध्य फंसाकर साईकिल में हवा भरते मगर फिर भी खुद की पेंट को हम काली होने से बचा न पाते थे। स्कूल में पिटते, कान पकड़ कर मुर्गा बनते, मगर हमारा ईगो हमें कभी परेशान न करता.. हम उस जमाने के बच्चें शायद तब तक जानते नही थे कि *ईगो* होता क्या है? क्लास की पिटाई का रंज अगले घंटे तक काफूर हो गया होता,और हम अपनी पूरी खिलदण्डता से हंसते पाए जाते। रोज़ सुबह प्रार्थना के समय पीटी के दौरान एक हाथ फांसला लेना होता, मगर फिर भी धक्का मुक्की में अड़ते भिड़ते सावधान विश्राम करते रहते। हम उस जमाने के बच्चे सपने देखने का सलीका नही सीख पाते, अपने माँ बाप को ये कभी नही बता पाते कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं, क्योंकि "आई लव यू माॅम-डेडी" नहीं आता था. हम उस जमाने से निकले बच्चे गिरते सम्भलते लड़ते-भिड़ते दुनिया का हिस्सा बने है। कुछ मंजिल पा गए हैं, कुछ यूं ही खो गए हैं। पढ़ाई, फिर नौकरी के सिलसिले में लाख शहर में रहे लेकिन जमीनी हकीकत जीवनपर्यन्त हमारा पीछा करती रहती रही है। अपने कपड़ों को सिलवट से बचाए रखना और रिश्तों को अनौपचारिकता से बचाए रखना हमें आज भी नहीं आता है। अपने अपने हिस्से का निर्वासन झेलते हम बुनते है कुछ आधे अधूरे से ख़्वाब और फिर जिद की हद तक उन्हें पूरा करने का जुटा लाते है आत्मविश्वास। कितने भी बड़े क्यूँ ना हो जायें हम आज भी दोहरा चरित्र नही जी पाते हैं, जैसे बाहर दिखते हैं, वैसे ही अन्दर से होते हैं। *"हम थोड़े अलग नहीं, पूरे अलग होते हैं. "* *कह नहीं सकते हम बुरे थे या अच्छे थे,* *"क्योंकि हम उस जमाने के बच्चे थे."* #Bachpan hmara
#bachpan hmara
read morem.s yaduvanshi
डरने की क्या बात है जब साईकिल अपने साथ है तोड़ दो सारे नियमो को जब साईकिल बैगर चालान है (अब जो बाइक चलना चाहते है ओ तो 5000_10000भर ही सकते हैं)😛 😂 #darr ।।m.s thoughts...mr. mahadev😅😅
#darr ।।m.s thoughts...mr. mahadev😅😅
read moreApna Hisar Vicky Yar
*!!हम उस जमाने के बच्चे थे!!* पांचवी तक घर से तख्ती लेकर स्कूल गए थे... स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी, कक्षा के तनाव में भाटा पेन्सिल खाकर ही हमनें तनाव मिटाया था। स्कूल में टाट-पट्टी की अनुपलब्धता में घर से खाद या बोरी का कट्टा बैठने के लिए बगल में दबा कर भी साथ ले जातें थे। कक्षा छः में पहली दफा हमनें अंग्रेजी का कायदा पढ़ा और पहली बार एबीसीडी देखी स्मॉल लेटर में बढ़िया एफ बनाना हमें बारहवीं तक भी न आया था। करसीव राइटिंग भी कॉलेज मे जाकर ही सीख पाए। उस जमाने के हम बच्चों की अपनी एक अलहदा दुनिया थी, कपड़े के थेले में किताब और कापियां जमाने का विन्यास हमारा अधिकतम रचनात्मक कौशल था। तख्ती पोतने की तन्मयता हमारी एक किस्म की साधना ही थी। हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते (नई काॅपी-किताबें मिलती) तब उन पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का स्थाई उत्सव था। सफेद शर्ट और खाकी पेंट में जब हम माध्यमिक कक्षा पहूँचे तो पहली दफा खुद के कुछ बड़े होने का अहसास तो हुआ लेकिन पेंट पहन कर हम शर्मा रहे थे, मन कर रहा था कि वापस निकर पहन लें। पांच छ: किलोमीटर दूर साईकिल से रोज़ सुबह कतार बना कर चलना और साईकिल की रेस लगाना हमारे जीवन की अधिकतम प्रतिस्पर्धा थी। हर तीसरे दिन पम्प को बड़ी युक्ति से दोनों टांगो के मध्य फंसाकर साईकिल में हवा भरतें मगर फिर भी खुद की पेंट को हम काली होने से बचा न पाते थे। स्कूल में पिटते, कान पकड़ कर मुर्गा बनतें मगर हमारा ईगो हमें कभी परेशान न करता.. हम उस जमाने के बच्चें शायद तब तक जानते नही थे कि *ईगो* होता क्या है। क्लास की पिटाई का रंज अगले घंटे तक काफूर हो गया होता, और हम अपनी पूरी खिलदण्डता से हंसते पाए जाते। रोज़ सुबह प्रार्थना के समय पीटी के दौरान एक हाथ फांसला लेना होता, मगर फिर भी धक्का मुक्की में अड़ते भिड़ते सावधान विश्राम करते रहते। हम उस जमाने के बच्चें सपनें देखने का सलीका नही सीख पाते, अपनें माँ बाप को ये कभी नही बता पातें कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं, क्योंकि "आई लव यू माॅम-डेडी" नहीं आता था. हम उस जमाने से निकले बच्चें गिरतें सम्भलतें लड़ते भिड़ते दुनियां का हिस्सा बने हैं। कुछ मंजिल पा गए हैं, कुछ यूं ही खो गए हैं। पढ़ाई फिर नौकरी के सिलसिलें में लाख शहर में रहें लेकिन जमीनी हकीकत जीवनपर्यन्त हमारा पीछा करती रहती रही है. अपने कपड़ों को सिलवट से बचाए रखना और रिश्तों को अनौपचारिकता से बचाए रखना हमें नहीं आता है। अपने अपने हिस्से का निर्वासन झेलते हम बुनते है कुछ आधे अधूरे से ख़्वाब और फिर जिद की हद तक उन्हें पूरा करने का जुटा लाते है आत्मविश्वास। कितने भी बड़े क्यूँ ना हो जायें हम आज भी दोहरा चरित्र नही जी पाते हैं, जैसे बाहर दिखते हैं, वैसे हीं अन्दर से होते हैं। *"हम थोड़े अलग नहीं, पूरे अलग होते हैं. "* *कह नहीं सकते हम बुरे थे या अच्छे थे,* *"क्योंकि हम उस जमाने के बच्चे थे."*
Ramesh Kumar
वो दिन कितने अच्छे थे। जब हम बच्चे थे। हर कोई देखकर मुस्कराता था। कभी बाबू ,कभीमुन्ना कहकर बुलाता था। वो प्यार से गाल को खीचना बात बात पर रूठना मम्मी का गोद मे उठाना वो प्यार से समझाना। वो दिन कितने अच्छे थे। जब हम बच्चे थे। पापा का ड्यूटी से आना समोसे औऱ बर्फी लाना। सबसे पहले मैं ही खोलता था मैं बड़े वाला लूँगा। मैं ही बोलता था अपना खाकर भी मम्मी का समोसा चखना। वो दिन कितने अच्छे थे जब हम बच्चे थे। पापा का साईकिल पर अगले डंडे पर बिठाना। धीरे धीरे गानों का गुनगुनाना। गुब्बारे वाले का आना। बड़े गुब्बारे दिलाना। फिर गुब्बारे को साईकिल से छोड़ देना। ये ये ये ये ये कहकर जोर से ताली बजाना। फिर भी पापा का न डाँटना। वो दिन कितने अच्छे थे जब हम बच्चे थे। वो पहला पहला कबूतर वाला कायदा जो रोज मुझे पढ़ाते थे। नन्हे हाथो को कलम पकड़ना बार बार सिखाते थे। जब पहली बार मेने अ लिखना सिखा था। पापा के चेहरे पर थोड़ा सुकून दिखा था। पापा जब घोड़ा बन कर मुझे घूमाते थे। सच कहता हूं कि बड़े मजे आते थे। वो दिन कितने अच्छे थे। जब हम बच्चे थे। रमेष कुमार जब हम बच्चे थे
जब हम बच्चे थे
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