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साहस
ये जो मेरे हथेलियों में इश्क के खून का इल्जाम लगा है। ये आदमी के नहीं किसी रूह के छीटें बदन पर दिखे है।। ये दंरीदगी किस रात की है ये हवसिपन किस बात की है मेरे हाथों में जो लहू लगे है ये लहू किसी इंसानी जात की है। आज सारा जहाँ हुआ शर्मिंदा है किसी के हाथों से लहू-लुहान हुआ परिंदा है ये कैसी दुनिया में हम जिये जा रहे है
ये दंरीदगी किस रात की है ये हवसिपन किस बात की है मेरे हाथों में जो लहू लगे है ये लहू किसी इंसानी जात की है। आज सारा जहाँ हुआ शर्मिंदा है किसी के हाथों से लहू-लुहान हुआ परिंदा है ये कैसी दुनिया में हम जिये जा रहे है
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क्या वाकई जनसंख्या नियंत्रण कानून जरूरी है? ©prakash Jha क्या वाकई जनसंख्या नियंत्रण कानून जरूरी है? इस कोरोना महामारी से पहले भी हमारे देश में करोड़ों लोग भुखमरी से मर रहे थे,ओर इस महामारी के बाद करोड़ों-करोड़ लोगों का इसमें इजाफा हुई है। यह भुखमरी जो अब अपना विराट रूप ले लिया है। इसका मूल वजह है जनसंख्या वृद्धि। हमने यह भी देखा है कि जिन-जिन देशों ने इस कोरोना महामारी पर जल्द ही नियंत्रण पा लिया है उन देशों की जनसंख्या बहुत ही कम है। अब जनसंख्या एक विकट समस्या बन गई है। हमारे देश में प्रत्येक दिन का जन्म दर कम से कम सत्तर हजार है, इस हिसाब से देश मे
क्या वाकई जनसंख्या नियंत्रण कानून जरूरी है? इस कोरोना महामारी से पहले भी हमारे देश में करोड़ों लोग भुखमरी से मर रहे थे,ओर इस महामारी के बाद करोड़ों-करोड़ लोगों का इसमें इजाफा हुई है। यह भुखमरी जो अब अपना विराट रूप ले लिया है। इसका मूल वजह है जनसंख्या वृद्धि। हमने यह भी देखा है कि जिन-जिन देशों ने इस कोरोना महामारी पर जल्द ही नियंत्रण पा लिया है उन देशों की जनसंख्या बहुत ही कम है। अब जनसंख्या एक विकट समस्या बन गई है। हमारे देश में प्रत्येक दिन का जन्म दर कम से कम सत्तर हजार है, इस हिसाब से देश मे
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ये दंरीदगी किस रात की है ये वहशीपन किस बात की है मेरे हाथों में जो लहू लगे है ये लहू किसी इंसानी जात की है। ©prakash Jha ये दंरीदगी किस रात की है ये वहशीपन किस बात की है मेरे हाथों में जो लहू लगे है ये लहू किसी इंसानी जात की है। आज सारा जहाँ हुआ शर्मिंदा है किसी के हाथों से लहू-लुहान हुआ परिंदा है ये कैसी दुनिया में हम जिये जा रहे है
ये दंरीदगी किस रात की है ये वहशीपन किस बात की है मेरे हाथों में जो लहू लगे है ये लहू किसी इंसानी जात की है। आज सारा जहाँ हुआ शर्मिंदा है किसी के हाथों से लहू-लुहान हुआ परिंदा है ये कैसी दुनिया में हम जिये जा रहे है
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ये दंरीदगी किस रात की है ये वहशीपन किस बात की है मेरे हाथों में जो लहू लगे है ये लहू किसी इंसानी जात की है। ©prakash Jha ये दंरीदगी किस रात की है ये वहशीपन किस बात की है मेरे हाथों में जो लहू लगे है ये लहू किसी इंसानी जात की है। आज सारा जहाँ हुआ शर्मिंदा है किसी के हाथों से लहू-लुहान हुआ परिंदा है ये कैसी दुनिया में हम जिये जा रहे है
ये दंरीदगी किस रात की है ये वहशीपन किस बात की है मेरे हाथों में जो लहू लगे है ये लहू किसी इंसानी जात की है। आज सारा जहाँ हुआ शर्मिंदा है किसी के हाथों से लहू-लुहान हुआ परिंदा है ये कैसी दुनिया में हम जिये जा रहे है
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हम क्या थे, हम क्या हैं और क्या होते जा रहे हैं..? prakash jha नीचे पूरा पढ़े 👇 हम क्या थे, क्या हैं और क्या होते जा रहे हैं..? बस कुछ दिनों पहले की बात है जिसे हम सब याद करते है... हम एक दूसरे से मिलते थे, गले लगते थे, हाथ मिलाते थे, अपने से बड़ो का पैर छू कर आशीर्वाद लेते थे, दोस्तो को सतना, साथ बैठ कर खाना, खूब मस्तियाँ करना, बच्चों को दुलारना अपने रिश्तेदारों के घर जा कर मिलना, बेफिक्री से घूमना, एक दूसरे को थपथपाना..! ऐसा लगता है जैसे ये सब बहुत पुरानी बातें है । याद रखे अभी संकट के बादल छाया हुआ है ये बदल जरूर छटेगा। बस यही मायने रखता है हमारे लिए कि इस महामारी में हम
हम क्या थे, क्या हैं और क्या होते जा रहे हैं..? बस कुछ दिनों पहले की बात है जिसे हम सब याद करते है... हम एक दूसरे से मिलते थे, गले लगते थे, हाथ मिलाते थे, अपने से बड़ो का पैर छू कर आशीर्वाद लेते थे, दोस्तो को सतना, साथ बैठ कर खाना, खूब मस्तियाँ करना, बच्चों को दुलारना अपने रिश्तेदारों के घर जा कर मिलना, बेफिक्री से घूमना, एक दूसरे को थपथपाना..! ऐसा लगता है जैसे ये सब बहुत पुरानी बातें है । याद रखे अभी संकट के बादल छाया हुआ है ये बदल जरूर छटेगा। बस यही मायने रखता है हमारे लिए कि इस महामारी में हम
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हाँ मजदूर हूं मैं.... इसलिए मजबूर हूं मैं..! हाँ मजदूर हूं मैं... इसलिए मजबूर हूं मैं..! भरी दोपहरी में रास्ते का पत्थर तोड़ता हूं मैं। थक हार कर कभी सोचता हूं तो कभी रोता हूं मैं। कभी अपने पैरों में परे छाले को नोचता हूं मैं। कभी अपने पैरों के छालो से पूछता हूं मैं। क्यों लोग मुझे कहते है की बहुत क्रूर हूं मैं।
हाँ मजदूर हूं मैं... इसलिए मजबूर हूं मैं..! भरी दोपहरी में रास्ते का पत्थर तोड़ता हूं मैं। थक हार कर कभी सोचता हूं तो कभी रोता हूं मैं। कभी अपने पैरों में परे छाले को नोचता हूं मैं। कभी अपने पैरों के छालो से पूछता हूं मैं। क्यों लोग मुझे कहते है की बहुत क्रूर हूं मैं।
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कैसे साथ छोड़ देते है लोग किसी अपनो को, कैसे जला दते है लोग किसी के सपनो को/ कैसे साथ छोड़ देते है लोग किसी अपनो को, कैसे जला दते है लोग किसी के सपनो को/ भूल गए हो न तुम उन तमाम सभी बातों को, जिस रात जला दी गई मासूम की आवाजों को, कल जो हुआ था किसी और मासूम के साथ, कल फिर वही हश्र होगा तुम्हारे अपनो के साथ, न कोई बचेगा रोने को तुम्हारे लाशो पर,
कैसे साथ छोड़ देते है लोग किसी अपनो को, कैसे जला दते है लोग किसी के सपनो को/ भूल गए हो न तुम उन तमाम सभी बातों को, जिस रात जला दी गई मासूम की आवाजों को, कल जो हुआ था किसी और मासूम के साथ, कल फिर वही हश्र होगा तुम्हारे अपनो के साथ, न कोई बचेगा रोने को तुम्हारे लाशो पर,
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