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Pradyumn awsthi
वह पथ क्या पथिक कुशलता क्या जिस पथ में बिखरे शूल ना हों... नाविक की धैर्य परीक्षा क्या जब धाराएं प्रतिकूल ना हों... ©"pradyuman awasthi" #प्रतिकूल,अनुकूल
#प्रतिकूल,अनुकूल
read moreAnil Siwach
|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 8 ।।श्री हरिः।। 2 – ग्रह-शान्ति 'मनुष्य अपने कर्म का फल तो भोगेगा ही। हम केवल निमित्त हैं उसके कर्म-भोग के और उसमें हमारे लिये खिन्न होने की कोई बात नहीं है।' आकाश में नहीं, देवलोक में ग्रहों के अधिदेवता एकत्र हुए थे। आकाश में केवल आठ ग्रह एकत्र हो सकते हैं। राहु और केतु एक शरीर के ही दो भाग हैं और दोनों अमर हैं। वे एकत्र होकर पुन: एक न हो जायें, इसलिये सृष्टिकर्ता ने उन्हें समानान्तर स्थापित करके समान गति दे दी है। आधिदैवत जगत में भी ग्रह आठ ही एकत्र होते
read moreअनुराग चन्द्र मिश्रा
ज़िंदगी में हर अगला कदम बढ़ाने से पहले ख़ुद के अनुकूल अगले 16 कदम.. ख़ुद के प्रतिकूल अगले 64 कदम को ध्यान में रखना चाहिए #ज़िंदगी में हर अगला कदम बढ़ाने से पहले ख़ुद के #अनुकूल अगले 16 कदम ख़ुद के #प्रतिकूल अगले 64 कदम को ध्यान में रखना चाहिए #nojoto #nojotohindi
#ज़िंदगी में हर अगला कदम बढ़ाने से पहले ख़ुद के #अनुकूल अगले 16 कदम ख़ुद के #प्रतिकूल अगले 64 कदम को ध्यान में रखना चाहिए nojoto #nojotohindi
read moreरजनीश "स्वच्छंद"
काल सर्प।। प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता। विकल मन पंछी हुआ, अंतर्मन भी है दुत्कारता। स्वार्थलोलुप मनु संतति, है आत्मा मूर्छित पड़ी। अहं स्वर है कर्ण भेदता, है वाणी लज्जित खड़ी। वनचर मनुज के भेष में, दम्भ पाले ललकारता, आडंबरों के युग मे चित बैठ अंदर धिक्कारता। किसी अश्वमेधी यज्ञ का बन अश्व सरपट भागता, निर्बल सबल सब भेदहींन, बढ़ रहा सबको धांगता। जीवात्मा नेपथ्य से, है कराहता और पुकारता। प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता। किसके उदर का एक निवाला धूलधूसरित हो रहा, अनाजों के ढेर चढ़, रोटियों का ही गणित हो रहा। इस समर में था कौन जीता, कौन था तटस्थ बना, पाप है या पुण्य है ये, एक दूजे में था समस्त सना। धन की बोरी कोई लादे, कष्ट कोई झुक है ढो रहा, पाप कालिख है अब नहीं, जा गंगा में सब धो रहा। रहे कब तलक वो मूक बैठे, है उठ अब हुंकारता। प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता। बस किनारे बैठ कर, जलधार की थी विवेचना, मन भटकता मझधार में और सो रही थी चेतना। गहराई को मापा नहीं, थाह नहीं कोई वेग की, स्वप्नसज्जित लालसा, कमी रही एक डेग की। ले लेखनी लिख रहा, मैं आज मनुज के हार को, टाल मैं जाऊं कहीं, इसके भावी समूल संहार को। मैं भविष्य हूँ देखता, कागज़ पे उसे हूँ उतारता। प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता। ©रजनीश "स्वछंद" काल सर्प।। प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता। विकल मन पंछी हुआ, अंतर्मन भी है दुत्कारता। स्वार्थलोलुप मनु संतति, है आत्मा मूर्छित पड़ी। अहं स्वर है कर्ण भेदता, है वाणी लज्जित खड़ी। वनचर मनुज के भेष में, दम्भ पाले ललकारता,
काल सर्प।। प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता। विकल मन पंछी हुआ, अंतर्मन भी है दुत्कारता। स्वार्थलोलुप मनु संतति, है आत्मा मूर्छित पड़ी। अहं स्वर है कर्ण भेदता, है वाणी लज्जित खड़ी। वनचर मनुज के भेष में, दम्भ पाले ललकारता,
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|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 8 ।।श्री हरिः।। 2 – ग्रह-शान्ति 'मनुष्य अपने कर्म का फल तो भोगेगा ही। हम केवल निमित्त हैं उसके कर्म-भोग के और उसमें हमारे लिये खिन्न होने की कोई बात नहीं है।' आकाश में नहीं, देवलोक में ग्रहों के अधिदेवता एकत्र हुए थे। आकाश में केवल आठ ग्रह एकत्र हो सकते हैं। राहु और केतु एक शरीर के ही दो भाग हैं और दोनों अमर हैं। वे एकत्र होकर पुन: एक न हो जायें, इसलिये सृष्टिकर्ता ने उन्हें समानान्तर स्थापित करके समान गति दे दी है। आधिदैवत जगत में भी ग्रह आठ ही एकत्र होते
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