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मानवों की धरा से मानवता ही विलुप्त हुई जाती है, द

 मानवों की धरा से मानवता ही विलुप्त हुई जाती है,
देखकर हश्र इंसान का ,फट रही धरतीं की छाती है,

युग बदले ,मौसम बदले ,बदल गया इंसान धरा पर,
जाने कौन सी  लहर   में , ये दुनिया  बही  जाती है,

आँखों से शर्म गई ,और दिलो से मिट गया सम्मान,
देख जहां के बदले ढंग,मानवता शर्मशार हुई जाती है,

मानवता अब   थोड़ी   थोड़ी   ,हर रोज  मर रही है,
जीने का एक नया ढंग , दुनिया रोज सीख जाती है,

धन दौलत है  रिश्ते   नाते ,पैसा ही भगवान है अब,
परिवर्तन की आंधी,मानवता को रोज़ दफ़न कर आती है।।
-पूनम आत्रेय

©poonam atrey
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