संभाल लेना इस घड़ी को ... क्यों क़ी खोने लगी हैसभ्यताये अरण्यों मे..... सिमट रहे है सागर सत्य के पोखरों मे....... सड़ रहे है बीज संतत्व के.. ओर अंकुर पाप के फूट रहे है..... मानसरोवर के श्वेत मोती काले हँस चुग रहे है.. अमृत केमेघ विषमय बूंदो क़ी वृष्टि कररहे है विषाक्त वृष्टि