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दीवाली,माँ और मैं दीवाली हमेशा से ही स्याह और काली

दीवाली,माँ और मैं
दीवाली हमेशा से ही स्याह और काली रही है, इस बार भी कुछ अलग नहीं है। अमावस्या सैदव की तरह ऊर्जावान है और तटस्थ भी। मगर सदैव प्रकाश और उत्साह उसके स्याह को मलिन किये रहता था। 
ये दीवाली हमारे लिए कुछ ज्यादा ही घनघोर और रंगहीन सा लग रहा है। वैसे ही जैसे स्याम रंग का प्रकृति है, सारे रंग को अवशोषित करने या अपने में समाहित करने की। ऐसा प्रतीत हो रहा है की ये वास्तविक में हमारे जिंदगी के सारे रंगो को लील लिया हो जैसे। प्रकृति का ये बदरंग दीवाली का शायद कोई विकल्प नहीं है, इसकी कोई क्षतिपूर्ति नहीं है न ही कोई समाधान मगर मानसिक अवस्थाओं पर भी तो कोई जोर नहीं है। 
हालांकि प्रकृति की ये अवस्था भी अब ग्राह्य है मगर कई बदलाव के साथ, कई व्यथाओं के साथ , कई अविस्वास और विस्वास के बीच और अर्थ और अनर्थ के द्वन्द के बीच।
बदलाव सदैव जिंदगी को स्वीकार नहीं होता, और ये बदलाव निश्चित ही विध्वंश है हमारी सम्पूर्ण जिंदगी के अध्याय में। विवेचना और आत्मसंघर्ष के बिच की कड़ी का सत्य थोड़ा मुश्किल सा लग रहा है जो अंतर्मन को कचोटता है, उनकी उपस्थितिहीनता को अब भी असत्य मानता है और अब भी भविष्य , भुत और वर्तमान की परिस्थिति को अनुमानित कर अचेतना में है, एक सुगम्य रास्ते की तलाश में है जो अर्थहीन है सभी मायनों में। 
गीता का समस्त ज्ञान मानों सिमट सा गया है,और "स्थितिप्रज्ञता" की पहल अनावश्यक सा लग रहा है। और "चरैवेति चरैवेति" की दिक् दृष्टता हिलकोरे लेते दिख रहा है कहीं बिच भँवर में। 
संवेदना, भावुकता और सम्बन्धो के बिच की कड़ी इस गृहस्ता आश्रम का मूल है जो सामाजिक,सांस्कृतिक जीवन का केंद्र है जहाँ पर इस लोक और परलोक की सारी परिकल्पनाएं क्षीण लगता है और कृष्ण का अर्जुन के  साथ का संवाद तर्कहीन । शायद ये संवाद गृहस्थ के लिए नहीं है ये क्षत्रिय के लिए हो। अगर गृहस्थ के लिए होता तो शायद ये संवाद स्वयं पुरषोत्तम राम कर रहे होते। मगर वो स्वयं इसी विवेचना और पारिवारिक संबंधों के विभिन्न स्तरों पर उलझे रहे और मानवीय संवेदनशीलता , अश्रुलिप्त विलाप, आत्मीय सम्बोधन और मिलन और बिछड़ाव के बिच भावनाओं में डूबे रहे। और हमें एक संजीदा जीवन को जीने का आदर्श देते रहे। 
शायद तभी मैं ये मानता हूँ की मेरा व्यवहार और भावुक आँशु शायद अर्थहीन तो नहीं है। और इस दर्द का एहसास इतना सहज नहीं है की उसे "स्थितिप्रज्ञ" बन कर सुगम्य बना दिया जाये। सजल नयन और भावुक मन तो आत्मीयता का एहसास मात्र है,। मातृत्व, ममत्व और वात्सल्य का अनंत प्रेम इन गिनती के अश्रुबूंदों से कमजोर तो नहीं होगा बल्कि उसका एहसास और भी सबल होगा और अनंतगामि भी शायद ।

दीवाली,माँ और मैं दीवाली हमेशा से ही स्याह और काली रही है, इस बार भी कुछ अलग नहीं है। अमावस्या सैदव की तरह ऊर्जावान है और तटस्थ भी। मगर सदैव प्रकाश और उत्साह उसके स्याह को मलिन किये रहता था।  ये दीवाली हमारे लिए कुछ ज्यादा ही घनघोर और रंगहीन सा लग रहा है। वैसे ही जैसे स्याम रंग का प्रकृति है, सारे रंग को अवशोषित करने या अपने में समाहित करने की। ऐसा प्रतीत हो रहा है की ये वास्तविक में हमारे जिंदगी के सारे रंगो को लील लिया हो जैसे। प्रकृति का ये बदरंग दीवाली का शायद कोई विकल्प नहीं है, इसकी कोई क्षतिपूर्ति नहीं है न ही कोई समाधान मगर मानसिक अवस्थाओं पर भी तो कोई जोर नहीं है।  हालांकि प्रकृति की ये अवस्था भी अब ग्राह्य है मगर कई बदलाव के साथ, कई व्यथाओं के साथ , कई अविस्वास और विस्वास के बीच और अर्थ और अनर्थ के द्वन्द के बीच। बदलाव सदैव जिंदगी को स्वीकार नहीं होता, और ये बदलाव निश्चित ही विध्वंश है हमारी सम्पूर्ण जिंदगी के अध्याय में। विवेचना और आत्मसंघर्ष के बिच की कड़ी का सत्य थोड़ा मुश्किल सा लग रहा है जो अंतर्मन को कचोटता है, उनकी उपस्थितिहीनता को अब भी असत्य मानता है और अब भी भविष्य , भुत और वर्तमान की परिस्थिति को अनुमानित कर अचेतना में है, एक सुगम्य रास्ते की तलाश में है जो अर्थहीन है सभी मायनों में।  गीता का समस्त ज्ञान मानों सिमट सा गया है,और "स्थितिप्रज्ञता" की पहल अनावश्यक सा लग रहा है। और "चरैवेति चरैवेति" की दिक् दृष्टता हिलकोरे लेते दिख रहा है कहीं बिच भँवर में।  संवेदना, भावुकता और सम्बन्धो के बिच की कड़ी इस गृहस्ता आश्रम का मूल है जो सामाजिक,सांस्कृतिक जीवन का केंद्र है जहाँ पर इस लोक और परलोक की सारी परिकल्पनाएं क्षीण लगता है और कृष्ण का अर्जुन के  साथ का संवाद तर्कहीन । शायद ये संवाद गृहस्थ के लिए नहीं है ये क्षत्रिय के लिए हो। अगर गृहस्थ के लिए होता तो शायद ये संवाद स्वयं पुरषोत्तम राम कर रहे होते। मगर वो स्वयं इसी विवेचना और पारिवारिक संबंधों के विभिन्न स्तरों पर उलझे रहे और मानवीय संवेदनशीलता , अश्रुलिप्त विलाप, आत्मीय सम्बोधन और मिलन और बिछड़ाव के बिच भावनाओं में डूबे रहे। और हमें एक संजीदा जीवन को जीने का आदर्श देते रहे।  शायद तभी मैं ये मानता हूँ की मेरा व्यवहार और भावुक आँशु शायद अर्थहीन तो नहीं है। और इस दर्द का एहसास इतना सहज नहीं है की उसे "स्थितिप्रज्ञ" बन कर सुगम्य बना दिया जाये। सजल नयन और भावुक मन तो आत्मीयता का एहसास मात्र है,। मातृत्व, ममत्व और वात्सल्य का अनंत प्रेम इन गिनती के अश्रुबूंदों से कमजोर तो नहीं होगा बल्कि उसका एहसास और भी सबल होगा और अनंतगामि भी शायद ।

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