Nojoto: Largest Storytelling Platform

गाँव मे शहर "मुझे पता था ऐसा होने वाला है। जीवन के

गाँव मे शहर "मुझे पता था ऐसा होने वाला है। जीवन के अंतिम पड़ाव पे सबकुछ शान्त सा दिख रहा था। अभिनय के अंतिम चरण में समय का चक्र गतिमान लग रहा था, और माया प्रभावी। मैं नहीं चाहता था कि मेरे अकस्मात से कोई प्रभावित हो लेकिन ये हो न सका। सभी माया में संबंध के मायावी प्रलोभन में आसक्त थे। 

मुझे भी सब याद आ रहा है, कभी भी मैं कूच कर सकता हूँ, लेकिन ये पलायन नहीं था, ये स्वाभाविक और स्वीकार्य था। जीवन के गंतव्य के प्रभंजन से कौन बच सका था अबतक, स्वयम्भू भी उसके गत्य से खुद को अलग नहीं कर सके जब।"

मैं खो सा गया था जग कर के, एक तन्द्रा का विचारणीय भोर हुआ था। मैं अब भी वहीं बैठा था बिस्तर पे, खिड़की से पर्दे हटा दिए थे मैंने, और बाहर झांकने लगा था। आँखों के सामने बस सुर्ख़ बियावान आसमान दिख रहा था, सामने सड़क पर चलती हुई कुछ गाड़ियाँ और उदास सा सवेरा। आँखे बिल्कुल बदहवास सा था, समझ मे नहीं आ रहा था स्वप्न का मर्म। एक तरफ जहाँ सुबह का बियावान शहरी चरित्र था तो दूसरे तरफ स्वप्न का गौण यथार्थ। 

मैं अब थोड़ा भावुक होने लगा था, शायद ये भावुकता सत्य ज्ञापित था स्वप्न का और दर्पित दृश्य का। दोनों ही सत्य थे, एक सत्य जो जीवन के अवसान का कटु सत्य था और दूसरा जैविकता के स्वाभाविक अवसान का सामयिक सत्य। अजीब विडम्बना था, मैं अपने अतीत में खोने लगा था, मुझे सुबह की लालिमा के साथ होने वाले और दिखने वाली कलरवों का 25 साल पुराना अतीत दिखने लगा था। पता नहीं ये अस्वभाविक स्वप्न कैसी मनोदशा को मुझे हस्तांतरित कर रहा था। मैं जीवन के सत्य और पृथ्वी पर जैवीय और प्राकृतिक क्षरण को अवशोषित करती विकास का आरोह देख रहा था और समानांतर विश्व मे कहीं स्वस्वप्न में खुद के भौतिक अवसान का स्वप्नसत्य भी कहीं मुखर था।
गाँव मे शहर "मुझे पता था ऐसा होने वाला है। जीवन के अंतिम पड़ाव पे सबकुछ शान्त सा दिख रहा था। अभिनय के अंतिम चरण में समय का चक्र गतिमान लग रहा था, और माया प्रभावी। मैं नहीं चाहता था कि मेरे अकस्मात से कोई प्रभावित हो लेकिन ये हो न सका। सभी माया में संबंध के मायावी प्रलोभन में आसक्त थे। 

मुझे भी सब याद आ रहा है, कभी भी मैं कूच कर सकता हूँ, लेकिन ये पलायन नहीं था, ये स्वाभाविक और स्वीकार्य था। जीवन के गंतव्य के प्रभंजन से कौन बच सका था अबतक, स्वयम्भू भी उसके गत्य से खुद को अलग नहीं कर सके जब।"

मैं खो सा गया था जग कर के, एक तन्द्रा का विचारणीय भोर हुआ था। मैं अब भी वहीं बैठा था बिस्तर पे, खिड़की से पर्दे हटा दिए थे मैंने, और बाहर झांकने लगा था। आँखों के सामने बस सुर्ख़ बियावान आसमान दिख रहा था, सामने सड़क पर चलती हुई कुछ गाड़ियाँ और उदास सा सवेरा। आँखे बिल्कुल बदहवास सा था, समझ मे नहीं आ रहा था स्वप्न का मर्म। एक तरफ जहाँ सुबह का बियावान शहरी चरित्र था तो दूसरे तरफ स्वप्न का गौण यथार्थ। 

मैं अब थोड़ा भावुक होने लगा था, शायद ये भावुकता सत्य ज्ञापित था स्वप्न का और दर्पित दृश्य का। दोनों ही सत्य थे, एक सत्य जो जीवन के अवसान का कटु सत्य था और दूसरा जैविकता के स्वाभाविक अवसान का सामयिक सत्य। अजीब विडम्बना था, मैं अपने अतीत में खोने लगा था, मुझे सुबह की लालिमा के साथ होने वाले और दिखने वाली कलरवों का 25 साल पुराना अतीत दिखने लगा था। पता नहीं ये अस्वभाविक स्वप्न कैसी मनोदशा को मुझे हस्तांतरित कर रहा था। मैं जीवन के सत्य और पृथ्वी पर जैवीय और प्राकृतिक क्षरण को अवशोषित करती विकास का आरोह देख रहा था और समानांतर विश्व मे कहीं स्वस्वप्न में खुद के भौतिक अवसान का स्वप्नसत्य भी कहीं मुखर था।