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मै, ​रोज गूँथती हूँ, नैनों के जल से, ​पहाड़ सा हृदय

मै,
​रोज गूँथती हूँ,
नैनों के जल से,
​पहाड़ सा हृदय अपना,
​आटे की तरह,
​अपनी देह की रसोई में,
​
​काटती हूँ,
​अपने उदर में,
​सुख-दुःख की एक बराबर लोईयां,
​और..,
​बेलती हूँ,
सूरज व चाँद सी गोल रोटियाँ,
​ #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे

#जूठन
 
मै,
​रोज गूँथती हूँ,
नैनों के जल से,
​पहाड़ सा हृदय अपना,
मै,
​रोज गूँथती हूँ,
नैनों के जल से,
​पहाड़ सा हृदय अपना,
​आटे की तरह,
​अपनी देह की रसोई में,
​
​काटती हूँ,
​अपने उदर में,
​सुख-दुःख की एक बराबर लोईयां,
​और..,
​बेलती हूँ,
सूरज व चाँद सी गोल रोटियाँ,
​ #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे

#जूठन
 
मै,
​रोज गूँथती हूँ,
नैनों के जल से,
​पहाड़ सा हृदय अपना,
akalfaaz9449

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