मै, रोज गूँथती हूँ, नैनों के जल से, पहाड़ सा हृदय अपना, आटे की तरह, अपनी देह की रसोई में, काटती हूँ, अपने उदर में, सुख-दुःख की एक बराबर लोईयां, और.., बेलती हूँ, सूरज व चाँद सी गोल रोटियाँ, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #जूठन मै, रोज गूँथती हूँ, नैनों के जल से, पहाड़ सा हृदय अपना,