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दंश (In Caption) Part - I Ch - 14 लाजपत नगर पुलिस

दंश
(In Caption)
Part - I Ch - 14 लाजपत नगर पुलिस स्टेशन के मुर्दा  घर में मैं आमिर के साथ खड़ा था । मि. अवस्थी भी अपनी बेटी के साथ वहां आए थे। चेहरा ऐसा था जैसे किसी ने उनके बदन का सारा ख़ून निचोड़ लिया हो । उस दिन पहली बार मुझे इतना ज़्यादा बुरा लग रहा था कि मैं इज़हार भी नहीं कर सकता ; अब आप अगर ये सोच रहे हैं कि मैं तो एक पुलिस आॅफिसर हूं मुझे तो इन सबकी आदत होनी चाहिए तो जनाब मौत की आदत किसी को भी नहीं हो सकती , और हर लाश को देखकर इंसान को एक बार अपनी भूली हुई मौत याद आ ही जाती है।
      मैंने आमिर की तरफ़ देखा, वो एकटक तनु के पापा को देख रहा था। लेकिन उसके चेहरे पर अजीब से मिले - जुले तास्सुरात थे। फ़िलहाल मैं ने उनकी तरफ़ से ध्यान हटा कर उस लाश पर नज़र डाली, वो सड़ना शुरू हो चुकी थी। एटॉप्सी की रिपोर्ट आ गई थी; गला घोंटा गया था फिर चेहरे को तेज़ाब डाल कर ख़राब कर दिया गया था। 
  कमरे में एक कांस्टेबल कुछ चीजें शिनाख़्त के लिए लेकर आया। कान की बाली, अंगूठी, ब्रेसलेट; हां ब्रेसलेट...! मेरी नज़र उसपर टिक गई... कुछ लिखा था, मैं ने कांस्टेबल के हाथ से वो पैकेट लिया....
"चिरंजीव" हां यही लिखा हुआ था, मेरी तलाश शायद पूरी हो चुकी थी..!

_____________________________

दीदी को ऐसे देखकर हमारे होश उड़ गए थे, मुझे तो अब भी विश्वास नहीं हो रहा था। उस समय पापा की स्थिति कैसे व्यक्त करुं ये मुझे नहीं समझ आ रहा था। उनकी बालियां और बाकी की वस्तुएं देखकर विश्वास न करना भी असंभव था।पर सबसे अधिक धक्का हमें तब लगा जब हमने चिरंजीव भैया की वो ब्रेसलेट देखी, हमने कभी नहीं सोचा था कि वो ऐसा कुछ करेंगे। अब दीदी की डायरी में लिखे उन शब्दों का अर्थ समझ आने लगा था....
दंश
(In Caption)
Part - I Ch - 14 लाजपत नगर पुलिस स्टेशन के मुर्दा  घर में मैं आमिर के साथ खड़ा था । मि. अवस्थी भी अपनी बेटी के साथ वहां आए थे। चेहरा ऐसा था जैसे किसी ने उनके बदन का सारा ख़ून निचोड़ लिया हो । उस दिन पहली बार मुझे इतना ज़्यादा बुरा लग रहा था कि मैं इज़हार भी नहीं कर सकता ; अब आप अगर ये सोच रहे हैं कि मैं तो एक पुलिस आॅफिसर हूं मुझे तो इन सबकी आदत होनी चाहिए तो जनाब मौत की आदत किसी को भी नहीं हो सकती , और हर लाश को देखकर इंसान को एक बार अपनी भूली हुई मौत याद आ ही जाती है।
      मैंने आमिर की तरफ़ देखा, वो एकटक तनु के पापा को देख रहा था। लेकिन उसके चेहरे पर अजीब से मिले - जुले तास्सुरात थे। फ़िलहाल मैं ने उनकी तरफ़ से ध्यान हटा कर उस लाश पर नज़र डाली, वो सड़ना शुरू हो चुकी थी। एटॉप्सी की रिपोर्ट आ गई थी; गला घोंटा गया था फिर चेहरे को तेज़ाब डाल कर ख़राब कर दिया गया था। 
  कमरे में एक कांस्टेबल कुछ चीजें शिनाख़्त के लिए लेकर आया। कान की बाली, अंगूठी, ब्रेसलेट; हां ब्रेसलेट...! मेरी नज़र उसपर टिक गई... कुछ लिखा था, मैं ने कांस्टेबल के हाथ से वो पैकेट लिया....
"चिरंजीव" हां यही लिखा हुआ था, मेरी तलाश शायद पूरी हो चुकी थी..!

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दीदी को ऐसे देखकर हमारे होश उड़ गए थे, मुझे तो अब भी विश्वास नहीं हो रहा था। उस समय पापा की स्थिति कैसे व्यक्त करुं ये मुझे नहीं समझ आ रहा था। उनकी बालियां और बाकी की वस्तुएं देखकर विश्वास न करना भी असंभव था।पर सबसे अधिक धक्का हमें तब लगा जब हमने चिरंजीव भैया की वो ब्रेसलेट देखी, हमने कभी नहीं सोचा था कि वो ऐसा कुछ करेंगे। अब दीदी की डायरी में लिखे उन शब्दों का अर्थ समझ आने लगा था....
rabiyanizam6257

Rabiya Nizam

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