मेरे देश की धरती, सोना उगले धरती का सीना चीर किसान पीला सोना उगाता है। तन का पसीना बहा के किसान रक्त को पानी बना फसलें उगाता है। खेतों में खड़े फसलों की बालियां हवा में समृद्धि की गाना सुनाती हैं। खेतों की जमीन जोत जोत मिट्टी को हलवा सा बनाता है। नन्हे मुन्ने बीज पौधों को रोप रोप धरती का श्रृंगार करते हैं। पत्थर सी बंजर भूमि बाग बगीचे बनाते है। मिट्टी में पैसों को डाल अन्न के रूप में देशभक्ति उगाते हैं। विपत्तियों के कालचक्र बाढ़ सुखाड़ बनके किसान कहां डर के बैठ जाते हैं। मर जाता है अन्नदाता भी कभी जब अन्न को भोजन नहीं समझा जाता है। सर्वजन सुखाय प्रायः किसान राष्ट्रभक्त कहलाता है जाने कितने कीट पतंग चूहे उसका अन्न खाता है। बिकती हैं अन्न की बोरियां कूड़े के भाव लगते हैं सड़क समाज बाजार पर प्रायः किसान बोझ सा लगता है। नंगे पांव सर पर गामछी सादा जीवन सुखा आहार। दुर्दशा में है आज किसान बन गया है राजनीति का अचार। अभाव सदा इनके चौखट पलता है बैंकों की नजर में सदा खटकता रहता है। मकर संक्रांति लोहड़ी वैशाखी जब लाए घर खुशहाली। बसंत पंचमी उगड़ी गुडी पड़वा समृद्धि की है निशानी। देख तमाशा दुनिया की फसलों का पर्व सब मनाते हैं जब धरती से उगले सोना, हो गए तीज त्यौहार पर्व मेला। हर मौसम की मार सह पीला सोना काटता है देख तमाशा विधाता की फिर भी किसान भूखा सोता है। किसान