यूँ ही नही होता किसी नृत्य का सृजन जब अंतस की गहराई में संवेदनाएँ विस्तृत हो उद्वेलित करने लगती है दैहिक और आत्मिक आयामों को... तब मन्दाकिनी सी, कोई धारा महामौन को धारण कर स्फूरित होने लगती है आदियोगी की जटाओं से... और झरने लगता है मौन नृत्य रूप में सहसा ही... जैसे मृदु स्पर्श पा झाड़ देते है वृक्ष, रात्रि भर से सिंचित संपूर्ण ओस प्रेम रूप में.... यूँ ही नही होता किसी नृत्य का सृजन जब अंतस की गहराई में संवेदनाएँ विस्तृत हो उद्वेलित करने लगती है दैहिक और आत्मिक आयामों को...